लाकडाउन -11
बचा कुछ भी नहीं था ! सत्ता तो निर्लज्ज हो ही चुका था, समाजसेवियों ने भी शराब की वजह से मदद के हाथ खींचने लगे थे । ऐसे में महीने भर का अनलॉक का फ़ैसला हैरान करने वाला था। क्योंकि पूरी दुनिया के विशेषज्ञ कह रहे थे कि भारत के लिए आने वाला समय इस मामले में बेहद कठिन होने वाला है।
मरीज़ों की बढ़ती संख्या से राज्यों में अस्पतालों की व्यवस्था ख़राब होने लगी। ख़ासकर देश की राजधानी दिल्ली और आर्थिक राजधानी मुंबई के अलावा अहमदाबाद गुजरात और तमिलनाडू में कोरोना बेक़ाबू होने लगा । छत्तीसगढ़ में भी मरीज़ों की संख्या में बढ़ोतरी होने लगा। राजधानी रायपुर के कई इलाक़े बंद कर दिए गए , लेकिन बाज़ार को बंद करने की हिम्मत न राज्य सरकारों के पास थी , न ही केंद्र सरकार की ही हिम्मत हो रही थी ।
उधर प्राकृतिक आपदा तूफ़ान , टिड्डियो का हमला के अलावा चीन , पाकिस्तान और नेपाल का खेल शुरू हो चुका था । एक तरफ़ देश कोरोना से जूझ रहा था तो दूसरी ओर इस नए संकट ने सरकार की कार्यप्रणाली पर सवाल खड़ा कर दिया था, लेकिन सत्ता को इनसे क्या मतलब था , कहना मुश्किल है। राज्यसभा चुनाव की घोषणा के साथ ही एक बार फिर विधायकों की ख़रीद-फ़रोख़्त होने लगा था , तो बिहार चुनाव को लेकर varchual रैली से लेकर सियासी घमासान दिखने लगा था, और कोरोना चीख़ चीख़ के कह रहा था -मूर्खों तुम सब समझ बैठो हो कि तुम सुरक्षित हो ? लेकिन सियासतदारो को सियासत करने से फ़ुरसत नहीं था।
सरकार की सारी रणनीति असफल हो गई थी, लेकिन दिन-हीन जनता के सामने स्वयं को बचा पाने का तरीक़ा भी नहीं था। सभी राजनेता आपदा को अपने लिए अवसर में बदलने में लगे थे। निजी अस्पतालों में भी आपदा को अवसर में बदलने की होड़ मच चुकी थी, टेस्ट से लेकर इलाज के नाम पर लूट मचने लगी तो लोग कहने लगे -सरकारी अस्पताल में जाओगे तो जान से हाथ धो बैठोगे और निजी अस्पताल में जाओगे तो जायदाद से हाथ धो बैठोगे, इसलिए साबुन से हाथ धोईए।
इस सच्चाई का सबको पता था, आम आदमी से लेकर सत्ता में बैठे लोगों को भी पता था। निजी अस्पतालों को सरकार सस्ते दर पर ज़मीन देती है , लेकिन लूट के अवसर को नहीं रोकती। दूसरी तरफ़ सरकारी अस्पताल के डॉक्टरो से लेकर दूसरे कर्मचारियों को समय पर वेतन नहीं मिल पा रहा था। यह कैसी सत्ता है जो एक तरफ़ तो कोरोना वरियर्स के सम्मान के लिए बड़ी बड़ी बातें करती है तो दूसरी तरफ़ समय पर वेतन भी नहीं देती।
सब दिख रहा था , सब देख रहे थे, चुपचाप ! क्योंकि सत्ता की ताक़त के आगे सब बेबस नज़र आ रहे थे। सरकार के तरीक़े पर सवाल उठाए जाने वाले लोग कम थे, क्योंकि सत्ता ने जिस तरह से सवाल उठाने वालों को देशद्रोही की संज्ञा से नवाज़ने की कोशिश की थी , उसकी वजह से भी लोग चुप थे।
विरोधी पार्टी लगातार सवाल उठा रही थी, लेकिन इसे राजनीति बताया जाने लगा। उद्योगपति राहुल बजाज ने ज़रूर कहा कि भारत ने पश्चिम की नक़ल की और लॉकडाउन को बेरहमी के साथ लागू किया। लेकिन उसे सही से लागू नहीं किया गया ।इससे अर्थव्यवस्था तो ख़त्म हुई ही आम लोग भी तकलीफ़ में आ गए। और जब स्थिति बिगड़ गई तो केंद्र ने राज्यों को उनके हाल पर छोड़ दिया ।
जून के दूसरे सप्ताह में भारत विश्व में चौथे नम्बर पर पहुँच गया , हालाँकि मौत के मामले में अभी भी आधा दर्जन देश भारत से आगे थे।
राज्यों में आने वाले मज़दूरों की तकलीफ़ अभी भी कम नहीं हुई थी। आवागमन के साधन तो खुल गए थे , लेकिन उन्हें मनमाना दाम चुकाना पड़ रहा था।
राहत पेकैज सही हाथो में पहुँचाने की व्यवस्था अभी भी लचर था। मध्यम वर्गों के सामने रोज़गार की चुनौती खड़ा होने लगा था। संस्थाओं ने वेतन में कटौती करना शुरू कर दिया था।
सभी राज्यों में कोरोना मरीज़ों की संख्या को देखते हुए बिस्तरों की अतिरिक्त व्यवस्था की जा रही थी, लेकिन इसमें भी गोलमाल चल रहा था। सत्ता का चरित्र इस महामारी में भी नहीं बदल रहा था। बच्चों की पढ़ाई को लेकर अभिभावक चिंतित थे तो निजी स्कूली का अपना तरीक़ा था। कई निजी स्कूल भी आपदा को अवसर में बदलने की कोशिश में लगे थे। जान है तो जहान है का नारा भी जान भी जहान भी तक पहुँच गया था।
सबसे बड़ी दिक़्क़त अभी भी झुग्गी बस्तियों की थी। मानसून ने कई जगह दस्तक दे दिया था, और इससे आम लोगों की चिंता बढ़ गई थी। अभी भी कई घटनाएँ ऐसी हो रही थी जो आदमियत को झकझोर देने वाली थी ।
आपदा को अवसर में बदलने वाले सक्रिय हो गए थे। और सत्ता में बैठे लोग अपनी पीठ थपथपाने का अवसर ढूँढ रहे थे।
दिल्ली, मुंबई, गुजरात, तमिलनाडू और उत्तरप्रदेश से आने वाली ख़बरें अभी भी बेचैनी बढ़ा रही थी। ये पाँच राज्य शुरू से ही आगे चल रहे थे। दिल्ली और मुंबई में तो हालात बेक़ाबू थे, लेकिन इस हालात पर मिल जुल कर लड़ने की बजाय सियासत ही ज़्यादा हो रही थी। कभी बढ़ते प्रकरण पर सियासत तो कभी लाशों पर सियासत होने लगी। मज़दूरों के साथ मध्यम वर्ग बेहद परेशान थे। लेकिन सरकार के पास अब भी कोई योजना नहीं थी कि किस तरह से इस हालात से निपटा जाय।
देश वैसे भी डॉक्टरो के मामले में असहाय है। डब्ल्यू एच ओ के मुताबिक़ हर एक करोड़ की आबादी पर दस हज़ार डॉक्टर होने चाहिए लेकिन भारत अभी भी बेहद पीछे है। यही हाल नर्सिंग स्टाफ़ का है। पहले ही डॉक्टर की कमी से जूझ रहे देश में चिकित्सा व्यवस्था चरमराने लगा था । सरकारी अस्पताल भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ चुका है , लेकिन सरकार को इसकी ज़रा भी चिंता नहीं है। निजी अस्पताल की अपनी कहानी है, कई निजी अस्पताल तो स्लाटर हाउस से कम नहीं है, लेकिन मज़ाक़ है किसी पर कार्रवाई हुई हो ?
स्थानीय अखबारो में इस तरह की ख़बरें आए दिन प्रकाशित होती रहती है। कभी जायदाद लिखा लेने की कहानी तो कभी पैसा नहीं दे पाने की स्थिति में लाश को ही बंधक बना लेने की कहानी , लेकिन सत्ता को इससे कोई मतलब नहीं, कभी बहुत ज़्यादा मामला तूल पकड़ा तो दिखाने के लिए जाँच कमेटी बना दी गई। लेकिन जाँच कमेटी की रिपोर्ट पर क्या हुआ, कोई नहीं जानता।
मोदी सरकार ने सत्ता में आने के बाद 2016 में दर्जन भर से अधिक एम्स की घोषणा करते हुए इसे 2019 तक पूरा कर लेने की घोषणा की थी लेकिन, कहीं भी कोई भी एम्स पूरा नहीं हुआ। यहाँ तक कि रायपुर जैसे जगह में अटल सरकार के दौरान खुले एम्स में अभी भी बीस फ़ीसदी से अधिक काम बचा है, जबकि इसे डेढ़ दशक हो गया । और कोरोना काल में यही अभी महत्वपूर्ण भूमिका में है।
चिकित्सा जैसे महत्वपूर्ण विषय में भी सरकार की उदासीनता हद दर्जे की शर्मनाक स्थिति है। लेकिन जैसे ही कोई सवाल उठाएगा , उसे कटघरे में खड़ा कर दिया जाता है। सत्ता के इस नए पैंतरे से लोग हैरान भी हैं और सकते में भी हैं।
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें