लाकडाउन -12

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कहीं अव्यवस्था, कहीं अज्ञान, कहीं असावधानी, कहीं स्वार्थ और कहीं-कहीं अत्याचार। लॉकडाउन के दौरान सरकार के ये अनेक दोष खुलकर सामने आ गए, दिखाई देने लगे। ऊपर से सरकार की तरफ़ से लगातार ग़लती और चूक भी हो रही थी। न सत्ता ईमानदारी से कुछ करना चाह रही थी और न ही लोग ही कोरोना से भय खा रहे थे। साफ़ दिख रहा था कि सत्ता अपनी रईसी में मगन है, और यदि कोरोना नहीं आता तो इसका कहाँ पता चलता कि सत्ता की रईसी की क़ीमत आम आदमी को किस तरह चुकाना पड़ रहा है।
ख़बरें अब भी निराशाजनक आ रही थी। मज़दूरों की तकलीफ़ अब भी कम नहीं हो रही थी। जिन मज़दूरों के हौसले अपनी मेहनत के दम पर बुलंदी पर होते थे , वे भी असहाय हो गए थे । अव्यवस्था का ख़ामियाज़ा मज़दूर भुगत रहे थे। मज़दूरों की स्थिति का अंदाज़ा इस एक घटना से लगाया जा सकता है । बेंगलोर से विशेष विमान से 25 मज़दूर जब रायपुर पहुँचे तो उन्होंने अपनी व्यथा सुनाते हुए बताया कि किस तरह से सरकारी व्यवस्था ने उन्हें मज़बूर  और लाचार बना दिया था। विमान से आने वाले अमोदा नवागढ़ के राजेश ने बताया कि उसने भांजी की शादी के क़र्ज़ से उबरने छः माह पहले बेंगलोर गया था। निर्माण कम्पनी में काम भी मिल गया। अभी वे पैसे कमाकर इकट्ठा कर ही रहे थे  कि लॉकडाउन हो गया। लॉकडाउन होते ही ठेकेदार ने उनकी ओर देखना ही बंद कर दिया और राशन महँगे दर पर ख़रीदने की वजह से जमा पूँजी भी ख़त्म हो गई। हम कभी भी सरकार के योजना के भरोसे नहीं रहे। अपने बलबूते पर मेहनत करके जीते हैं। गाँव वापसी के लिए हमें अधिकारियों पर आश्रित रहना पड़ा।
कुछ इसी तरह की व्यथा मोहगँव के लक्ष्मीनारायण की थी । लकवाग्रस्त माँ के ईलाज के लिए क़र्ज़ लिया था। क़र्ज़ पटाने के लिए कमाने बेंगलोर गया था। बच्चों की पढ़ाई-लिखाई को दाँव पर लगाकर काम करने गए हज़ारों मज़दूरों की इस व्यथा के बाद भी कोई ये कहे कि सरकार सबका हित देखती है , तो फिर क्या कहा जाय।
जितने मज़दूर उनकी उतनी ही तकलीफ़ देह कहानी है। कहीं ठेकेदार का शोषण तो कहीं सरकारी अव्यवस्था और अत्याचार की कहानी।
इसी तरह की दुखद व्यथा चेन्नई से निजी बस से बसना इलाक़े में लौटने वाले मज़दूरों की है। ये लोग भी भवन निर्माण के काम से चेन्नई गए थे। लॉकडाउन के दौरान इन लोगों ने वापसी के लिए आनलाईन आवेदन भी किया, लेकिन किसी ने इनके आवेदन की सुध नहीं ली। ये हर जगह गुहार लगाते रहे, लेकिन पता नहीं कौन सी सरकारी व्यवस्था है जो इन्हें देख नहीं पाई।
इसके बाद में वहाँ के रेलवे स्टेशन भी पहुँचे , लेकिन पुलिसवालों ने इन्हें भगा दिया। तब वे थकहार कर निजी बस करके किसी तरह रायपुर पहुँचे। निजी बस को इन्हें एक लाख सत्तर हज़ार देना पड़ा। ये चालीस लोग थे।
इन्हें बताया गया कि रायपुर के टाटीबंद में छत्तीसगढ़ सरकार ने व्यवस्था की है, लेकिन यहाँ आने पर इन्हें निराशा हुई, क्या व्यवस्था है कोई बताने तैयार नहीं था तो इन लोगों ने पाँच पाँच हज़ार में चार आटो करके गृहग्राम रवाना हुए। एक मज़दूर प्रह्लाद ने बताया कि जितना कमाए थे वह सब यात्रा में ही ख़र्च हो गया। लेकिन सही सलामत घर पहुँचने का संतोष है।
मज़दूर तो संतोषी जीव होते ही हैं। वरना जितनी तकलीफ़ इन लोगों ने बर्दाश्त किया है, वह कोई और कैसे करता।
एक तरफ़ मज़दूरों की व्यथा और तकलीफ़ कम होने का नाम नहीं ले रहा था तो दूसरी ओर मध्यमवर्ग़िय परिवार के सामने नई नई दिक़्क़त शुरू हो गई थी। फ़िल्मी कलाकार सुशांत सिंह राजपूत के लिए घंटो ख़बर चलाने वाले मीडिया के पास बिहार के एक क़स्बे के आटो चालक की आत्महत्या साधारण ख़बर थी । जबकि घर में अकेले कमाने वाले इस आटो चालक ने आर्थिक तंगी से त्रस्त होकर आत्महत्या की थी। लॉकडाउन के बाद जब अनलॉक शुरू हुआ तो वह भी आटो लेकर सड़क पर आ गया लेकिन सवारी ही नहीं मिल रहा था। और ये अंदाज़ा लगाना भी मुश्किल है कि हालात कब सुधरेंगे । ऐसे में उसने अपनी जीवन लीला समाप्त कर ली ।
सबसे दुखद तो भानु गुप्ता के सुसाइड नोट है, जिसकी चर्चा कोई सत्ता नहीं करना चाहेगी। उसने अपने सुसाइड नोट में जो दर्द लिखा है वह सत्ता कभी नहीं मानेगी , उसने लिखा है- गेहूँ चावल सरकारी कोटे से मिल जाता है , पर चीनी, दूध, दाल, शक्कर, सब्ज़ी, मिर्च, मसाले नहीं। परचून वाला अब उधार भी नहीं देता है। मुझे खाँसी, साँस , जोड़ो का दर्द, दौरा, अत्यधिक कमज़ोरी, चलना तो साँस फूलना, चक्कर आना आदि। ऐसी ही मेरी विधवा माँ दो साल से खाँसी बुखार से पीढ़ित है, तड़फ-तड़फ कर जी रही है। लॉकडाउन बराबर बढ़ता जा रहा है। नौकरी नहीं मिल रही है। न शासन ने सुध ली न प्रशासन ने ही सुध ली । हमारे पास इतने पैसे भी नहीं मरने के बाद क्रियाकर्म ही करा सके।
लखीमपुर खीरी के भानु गुप्ता की इस सुसाइड नोट से समझा जा सकता है की स्थिति क्या है और सरकार क्या कर रही है। भानु ने ट्रेन के सामने कूदकर जान दे दी। वह शाहजहाँपुर में किसी होटल में काम करता था और लॉकडाउन की वजह से उसे घर चलाना मुश्किल हो रहा था। 
ये सिर्फ़ एक भानु की कहानी नहीं है। ऐसे कितने लोग हैं जो तिल तिल कर मर रहे हैं लेकिन अभी तक यानी 18 जून 2020 तक किसी भी सरकार ने मध्यमवर्ग़िय परिवार के लिए कुछ नहीं किया है। क्या सत्ता केवल उनके अपनी रईसी के लिए ही बना है। उसका देश के आम लोगों के प्रति कोई ज़िम्मेदारी और कर्तव्य नहीं है।

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