लॉकडाउन -13

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बढ़ती आवाजाही से राज्यों की व्यवस्था चरमरा गई थी। हर राज्य में कोरोना का प्रभाव बढ़ने लगा था । ख़ासकर दिल्ली-मुम्बई में तो यह वायरस क़हर बनकर टूट रहा था। अभी तक केंद्र सरकार केवल निर्देश दे रही थी , लेकिन दिल्ली में जब हालात बेक़ाबू होने लगे तो अचानक गृहमंत्री अमित शाह सक्रिय हुए। आनन-फ़ानन में दिल्ली सरकार के साथ बैठक ली और पहली बार लगा कि केंद्र सरकार कुछ करने वाली है।
बैठक का वास्तविक परिणाम तो बाद में आएगा लेकिन इस  बैठक के बाद दिल्ली भाजपा की राजनीति में रोक लगी । रेलवे ने पाँच सौ कोच में मरीज़ों के लिए बेड की व्यवस्था की तो उसके अलावा सत्संग भवन और होटलों में बेड की व्यवस्था में तेज़ी आई। साथ ही टेस्टिंग बढ़ाने और रिपोर्ट 48 घंटे में मिल जाने की घोषणा की गई।
दिल्ली में यह व्यवस्था की घोषणा तो की गई लेकिन पहले ही डाक्टरों और कर्मचारियों की कमी से जूझ रहे चिकित्सा व्यवस्था में नए बिस्तरों के लिए डाक्टर और कर्मचारी कहाँ से आएँगे इसका कहीं ज़िक्र नहीं था। एक तरफ़ दिल्ली में चिकित्सा सुविधा के विस्तार की बात ही रही थी तो दूसरी तरफ़ दिल्ली निगम के अस्पतालों में कार्यरत डाक्टर और कर्मचारियों ने वेतन नहीं मिलने की ख़बर ने सरकार की रीति नीति की पोल खोल दी। जब वेतन का मामला तुल पकड़ा तो फिर राजनीति शुरू हो गई । दिल्ली में आप की सरकार पर आरोप मढ़ने की कोशिश हुई तो निगम में बैठी भाजपा पर भी हमले हुए। पैसे के आबटन को लेकर कोरोना काल में सियासत हैरान और परेशान करने वाला था।
इधर राज्यों को लेकर अभी भी केंद्र की योजना स्पष्ट नहीं हो पा रहा था । तभी प्रधानमंत्री ने सर्वदलीय बैठक बुलाई। ढाई माह के लाकडाउन और कोरोना के बढ़ते प्रभाव के जो बैठक पहले ही बुला लेना चाहिए था , वह अब बुलाई गई। देर आय दुरुस्त आए के तर्ज़ पर बुलाई इस बैठक की वजह तो सरकार जाने लेकिन कहा जाता है कि सरकार की जब सारी रीति नीति फ़ेल हो गई तो वह बदनामी से बचने सर्वदलीय बैठक बुलाई। पहली बार हुई इस सर्वदलीय बैठक के नतीजे क्या होंगे यह साफ़ दिखने लगा। क्योंकि जो सत्ता केवल अपनी ही सुने और करे उससे कोई उम्मीद ही बेमानी है। 
इसके बाद प्रधानमंत्री ने एक बार फिर विभिन्न राज्यों के मुख्यमंत्रियों से चर्चा की , चर्चा तो पहले भी होते रही है। चर्चा के बाद वही बातें फिर दोहराई गई , जो अब तक आम लोगों के लिए दोहराया जाता रहा है। सुरक्षित रहें, मास्क को जीवन का अंग बना लें, वग़ैरह वग़ैरह।
इस बीच बम्बई हाई कोर्ट के चीफ़ जस्टिस दिपानकर दत्ता और जस्टिस ए ए सैयद की पीठ ने जिस तरह से टिप्पणी की वह सरकार और समाज के लिए चिंता का विषय होना चाहिए। हालाँकि हाईकोर्ट ने ज़रूरी सेवाओं में लगे अग्रिम मोर्चे के कर्मचारियों को घर से दूर अलग भेजने वाली जनहित याचिका को ख़ारिज कर दी , लेकिन जिस तरह से समाज में समान अवसर को सपना बताया वह चिंतनीय है।
जजों ने कहा कि मौजूदा हालात को देखते हुए कोई भी निकट भविष्य में एक निष्पक्ष समाज के बारे में मुश्किल से सोच सकता हाई। कोविद-19 संकट और लाकडाउन ने भारतीय अर्थव्यवस्था को प्रभावित किया है और यह दिखाया है कि देश में प्रवासी मज़दूरों की हालत कितनी दयनीय है। जजों ने कहा कि वैश्विक महामारी ने यह दिखा दिया है कि संवैधानिक गारंटी के बावजूद सभी को समान अवसर उपलब्ध कराने वाला समाज अब भी मात्र सपना है। जजों ने यह भी कहा कि कोरोना महामारी और इसके कारण लगाए लाकडाउन ने भारतीय अर्थव्यवस्था को अस्थिर कर दिया है। और इस हालात को देखते हुए कोई भी निकट भविष्य मे निष्पक्ष और न्यायपूर्ण समाज की कल्पना नहीं कर सकता। 
हालाँकि जजों ने यह भी कहा कि कोरोना के ख़िलाफ़ मैदान में डटे अग्रिम मोर्चे के कर्मचारियों को बिना डरे उनका काम करने देने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए। और उन्हें घर से दूर रहकर काम करने के लिए बाध्य नहीं करना चाहिए वक़ील गायत्री सिंह, अंकित कुलकणी और मिहिर देसाई ने दायर याचिका में अग्रिम मोर्चे में तैनात कर्मचारियों की सुरक्षा के लिए पीपीई किट सहित ज़रूरी सुविधाओं की बात कही थी। 14 जून को आए इस फ़ैसले की टिप्पणी महत्वपूर्ण होते हुए भी यह मुख्य मीडिया की ख़बर से ग़ायब कर दी गई क्योंकि इससे सरकार की परेशानी बढ़ जाती ।
हालाँकि इस सच्चाई से कोई इंकार नहीं कर सकता कि सरकार में बैठे लोग अपनी राजनैतिक नफ़ा-नुक़सान देखकर काम करते हैं, लेकिन मौजूदा सत्ता ने जिस तरह से अपनी कमज़ोरी, चूक और ग़लती को सही साबित करने में लगी है, वह हैरान करने वाली है। 
कोरोंना से निपटने में लगातार ग़लती तो की ही गई , आम लोगों को राहत देने के मामले में भी भेदभाव किया गया । यही वजह है कि प्रवासी मज़दूरों को राहत देने वाला भी फ़ैसला दुर्भावनापूर्वक और राजनीति से प्रेरित रहा। चूँकि बिहार में चुनाव है तो वहाँ के 32 जिलो को शामिल कर लिया गया लेकिन छत्तीसगढ़ के किसी जिले को शामिल नहीं किया गया। सरकार की इस नीति का विरोध भी होने लगा लेकिन राजनीति कब किसकी सुनी है जो अब कोई सुनता। 
बिहार चुनाव को लेकर ही योजना बनाया जाएगा तो फिर शेष भारत की उपेक्षा तो होगी ही ।

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