लाकडाउन -7

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रोज़ की तरह लोग सुबह उठकर चाय की चुस्कियाँ के साथ अख़बार का इंतज़ार कर रहे थे , गर्मी अपने उफान पर पहुँच गया था, सूर्य का वेग सुबह से ही अपना प्रभाव दिखाने लगा था।
अचानक एक ख़बर से मन एकदम ख़राब हो गया। जिसने भी यह ख़बर सुनी पलभर के लिए ही सही वह भीतर तक हिल गया। असहय !
ख़बर थी- महाराष्ट्र के औरंगाबाद में रेल पटरी पर सो रहे 16 मज़दूरों को एक मालगाड़ी ने रौंद दिया । जालाना रेलवे लाईन पर यह हादसा सुबह क़रीब साढ़े छः बजे हुआ ।
महाराष्ट्र की एक स्टील फ़ैक्टरी में काम करने वाले ये सभी लोग लॉकडाउन की वजह से काम बंद होने से परेशान थे । लॉकडाउन में यातायात के साधन बंद होने की वजह से वे पैदल ही अपने गृहनगर लौट रहे थे । सड़कों पर पुलिसिया अत्याचार या रोक टोक के कारण वे पटरी पर चलते हुए चालीस किलोमीटर का सफ़र तय कर लिया। इस बीच उन्हें कोई ट्रेन नहीं मिली तो वे थकने पर निश्चिन्त होकर पटरी पर ही आराम करने रुक गए , और चालीस किमी की थकान के चलते सुबह सुबह की ठंडी हवा ने उन्हें नींद की आग़ोश में ले लिया । और फिर यहाँ से गुज़रने वाली एक मालगाड़ी ने उन सोते मज़दूरों को कुचल दिया । 16 लोग मर गए।
कितना दर्दनाक और भयावह था यह हादसा। लेकिन इस मामले में भी सरकार को घिरते देख ट्रोल आर्मी ने सवेंदनहीनता की जो पराकाष्ठा पार की वह शर्मनाक ही कहा जाना चाहिए । ट्रोल आर्मी ने जिस तरीक़े से सवाल उठाए वह बेशर्मी थी , पटरी कोई सोने की जगह है क्या? सरकार को बदनाम करने की यह साज़िश है, और भी बेशर्मी भरा सवाल?
लेकिन हक़ीक़त तो यही है कि लोगों को पता था कि लॉकडाउन में ट्रेने बंद है, और फिर चालीस किमी चलते हुए कोई मालगाड़ी न गुज़रे तो किसे पता होगा की मालगाड़ी चल रही है ऐसे में निश्चितता आ ही जाएगी लेकिन ट्रोल आर्मी की बेशर्मी एक इंच जगह छोड़ने को तैयार नहीं थी।
कोई सड़क किनारे भूख-प्यास से तड़फ कर मर रहा था, कोई अत्याचारी पुलिस की लाठी का शिकार होकर मर जा रहा था । मज़दूरों को उनके हाल पर छोड़ दिया गया था। सड़कों पर जगह जगह पुलिस की लाठियाँ थी । इसी डर से कितने ही लोग पटरियों के किनारे, खेत , जंगल का रास्ता चुन ख़तरा उठा रहे थे । 
तभी एक ख़बर लखनऊ से आई। जानकीपुरम में रहने वाला एक मज़दूर परिवार साइकिल से ही अपने गृहनगर के लिए निकल गया । वह छत्तीसगढ़ आ रहा था। रास्ते में किसी ट्रक ने टक्कर मार दी । माता-पिता की घटना स्थल पर ही मौत हो गई, और दो मासूम अनाथ हो गए ।
लगातार रोज़ आधा दर्जन से अधिक ऐसी दिल दहला देने वाली घटनाएँ होने लगी , सत्ता की संवेदनहीनता पर सवाल भी उठने लगे , लेकिन सरकार में बैठे लोग निंदा और मुआवज़ा को ही अपना कर्तव्य मान चुके थे। कभी कभी तो ऐसा लगने लगा कि जितनी मौतें कोरोना के कारण नहीं हो रही है उससे कहीं ज़्यादा मौतें तो लॉकडाउन की वजह से हो रही है। सड़कों में मौत का सिलसिला थम नहीं रहा था , न ही भूखे प्यासे लौटते मज़दूर ही कम हो रहे थे। मध्यम वर्ग से भी आर्थिक तंगी की वजह से ख़ुदकुशी की ख़बरें आने लगी।
राज्य सरकारों ने बस चलाना शुरू किया तो केंद्र ने भी श्रमिक स्पेशल ट्रेन चलाना शुरू किया , लेकिन ठोस योजना किसी के पास नहीं थी । आख़िर इस आवाजाही से कोरोना को फैलने से रोकने का कोई ठोस उपाय , कोई ठोस योजना तो बनानी चाहिए , लेकिन कुछ नहीं बना।
मज़दूरों की भीड़ स्टेशनों में पहुँचने लगा , अफ़वाहों का बाज़ार गर्म था बढ़ती भीड़ ने लॉकडाउन के सारे नियम तोड़ दिए । सरकारें असहाय थी, पुलिस तमाशबीन ! क़ानून व्यवस्था की खुले आम धज्जियाँ उड़ाईं जा रही थी । तभी अचानक दो विचित्र ख़बरों की ओर देश का ध्यान गया । पहली ख़बर थी ट्रेन भी रास्ता भटकने लगी या गन्तव्य तक पहुँचने में तीन चार दिन लगने लगे। ट्रेन के भटकने की ख़बर हैरान करने वाली तो थी ही सरकार के क्रिया कलाप पर भी सवाल खड़ा कर रही थी।
तो दूसरी ख़बर मानवीय संवेदना को झकझोर देने वाली ख़बर थी । सरकार का दावा था कि वह श्रमिक ट्रेन में भोजन की भी व्यवस्था की है लेकिन सफ़र के दौरान भूख और प्यास से मौत की ख़बर आने लगी यह ख़बर से किसका दिल नहीं दहल जाएगा।
इसी बीच मृत माँ को उठाने चादर खिंचते बच्चे का विडियो वायरल हुआ तो देखने वालों की आत्मा रो पड़ी। इतनी निष्ठुरता , इतनी संवेदनहीनता !
यानी मज़दूर न हुए सरकार के बैरी हो गए। पूरी मज़बूती से जहाँ मौक़ा मिले उन्हें कुचल डालोकी यह कौन सी रीति नीति काम कर रही थी। आख़िर एक ट्रेन में बारह सौ यात्री ही तो सफ़र कर रहे थे और उन्हें भी भोजन देने में सरकार नाकामयाब थी। फिर वह किस मुँह से कहती है कि उसके पास अनाज के भंडार भरे हैं।
सब तरफ़ मचे इस हाहाकार से उद्योगपतियों में भी बेचैनी बढ़ने लगी थी। क्योंकि सब जानते थे कि एक बार मज़दूर वापस अपने गाँव लौट गए तो आठ दस महीने से पहले नहीं लौटने वाले हैं। ऐसे में उद्योगों का क्या होगा, अर्थव्यवस्था का क्या होगा। शहरों का क्या होगा और इस सबसे बड़ी बात सरकार की रईसी का क्या होगा?
क्योंकि सरकार के पास पैसे नहीं होने की ख़बर के पीछे का सच को कोई इंकार नहीं कर सकता।यही वजह है कि गाँव लौटते मज़दूरों को रोज़गार देने की व्यवस्था में ही सरकार के पसीने छूटने लगे हैं। मंत्रियों के बयान मूर्खतापूर्ण आने लगे, एक मंत्री ने तो यहाँ तक कह दिया कि अब हम उद्योगों को ही गाँव तक ले आएँगे।
इस पर मेरे एक मित्र ने कहा पता नहीं इस देश का क्या होगा । कुआँ को ही उठाकर लाने की बात करने वाले क्या कुछ कर पाएँगे। कुआँ के साथ पानी को कैसे लाएँगे।
चौतरफ़ा संकट गहराने लगा था । और ट्रोल आर्मी सरकार को बचाने नए-नए तरीक़े ईजाद कर रही थी। सरकार को बचाने जमात से शुरू हुआ खेल राज्यों की मुख्यमंत्रियों की असफलता से होते हुए पाकिस्तान और चीन तक आ पहुँचा था।
लेकिन सच कब तक छुपा रहता। लोग भी कब तक चुप रहते । सूरत अहमदाबाद से लेकर कई शहरों में मज़दूर सड़क पर आ गए। पुलिस की सहायता से आक्रोश को दबाने की कोशिश हुई तो मामला और बिगड़ गया। पुलिस पर ही जगह जगह पत्थरबाज़ी और सरकारी सम्पत्तियों पर आगज़नीहोने लगी। हालाँकि सत्ता की ताक़त के आगे वे कब तक टिकते । मार खाकर, हाथ पैर तुड़वाकर जेलों में बंद हो गए ।

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