लॉकडाउन -14

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लॉकडाउन से अनलॉक का सफ़र जितना कष्टप्रद था , उससे ज़्यादा कष्टप्रद तो सत्ता में बैठे लोगों की सोच को लेकर था , लेकिन कोई भी सत्ता की ग़लतियों पर बोलने तैयार नहीं था। 
मौत के आँकड़े लगातार बढ़ रहा था और सत्ता अपनी रईसी के जुगाड़ में लगा था । ऐसे में सत्ता किसी की मदद करेगी यह भरोसा ही नहीं था। नौकरियाँ लगातार ख़त्म हो रही थी, परिवहन जैसी जगह में काम करने वाले लोगों की हालत लगातार बदतर होने लगा था। यहाँ तक कि मीडिया हाउस में भी बड़े पैमाने पर छटनी होने लगा।
हालाँकि मैंने पहले ही कह दिया था कि ऐसी सत्ता पर कभी भी भरोसा नहीं करना चाहिए, जिसे सिर्फ़ अपनी रईसी की फ़िक्र हो। और शायद ये बात इस देश का बड़ा तपका जानता है , समझता है। इसलिए वह हर संकट या विपदा के समय सरकारी मदद से पहले खड़ा नज़र आता है।
छत्तीसगढ़ ही नहीं पूरे देश में ऐसे लोगों की कमी नही रही , जो इस महामारी में विपत्ति में फँसे लोगों के लिए अपना दिल खोलकर रख दिया था । जगह-जगह भोजन बाँटे जा रहे थे, ज़रूरी सामान दिए जा रहे थे । ताकि इस मुसीबत से परेशान लोग कोई आत्मघाती या ग़लत क़दम उठाने मजबूर न हो।
छत्तीसगढ़ में टाटीबंध के सिख समाज ने प्रवासी मज़दूरों के लिए भोजन की व्यवस्था उठा रखी थी, तो बढ़ते क़दम नामक संस्था भी अपने स्तर पर मदद कर रहा था। इसके अलावा पचासो संस्थाए थी जो लगातार ज़रूरतमंद के लिए भोजन और दूसरी ज़रूरत को पूरा करने में लगी थी। इसके अलावा ऐसे बहुत से लोग थे जो अपने स्तर पर मदद कर रहे थे। रायपुर सराफ़ा एसोंसिएशन के पूर्व अध्यक्ष अशोक गोलछा ने तो राजधानी के आउटर में फँसे ट्रक चालक और कलिनर के लिए रोज़ ढाई तीन सौ पैकेट खाना देने स्वयं जाकर वितरित करते थे , तो सराफ़ा व्यवसाय से ही जुड़े पारस सोनी भी अपने स्तर पर लॉकडाउन में फँसे छात्रों व अन्य ज़रूरतमंद को भोजन और ज़रूरी सामान उपलब्ध करा रहे थे । सरस्वती राव ने तो भूखे नहीं रहने दूँगी के अपने संकल्प को अकेले पूरा करने में लगी थी तो जसबीर बेदी सहित ऐसे कई लोग थे जो अपनी ताक़त से सेवा कर रहे थे । एम्स में मरीज़ों और उनके परिजनों को भोजन वितरण करने भोजन तीर्थ सेवा समिति श्रीराम चौक मोहबा बाज़ार वाले उठा रहे  तो कई जनप्रतिनिधि भी अपने स्तर पर लोगों की मदद कर रहे थे ।
समाजसेवियों की इस भागीदारी के चलते ही लॉकडाउन का पहला और दूसरा चरण सफल हुआ था कहा जाय तो ग़लत नहीं होगा , क्योंकि लॉकडाउन के बाद भले ही आम लोग ठीक से लॉकडाउन नहीं हो पाए , लेकिन सत्ता में बैठे लोग पूरी तरह से दो कारण से लॉकडाउन हो गए थे , पहली वजह कोरोना से जान जाने का डर था तो दूसरी वजह तकलीफ़ में फँसे लोगों से आँख चुराना था। यही वजह है कि इतने भयावह तकलीफ़ से गुज़र रहे लोगों की मदद करने की बजाय वे अपने बंगलो में घुसे रहे। कहीं कहीं पार्षद विधायक या महापौर स्तर के लोग ज़रूर सक्रिय रहे।
सत्ता के प्रमुख पदों पर बैठे लोगो ने तो जैसे तय ही कर लिया था कि ईश्वर ही सब ठीक करेगा, लेकिन ईश्वर भी जब धार्मिक स्थलों पर बंद हो गए थे तो फिर समाजसेवी ही आमलोगो का एकमात्र सहारा थे।
यही वजह है कि जब पूरी दुनिया के दूसरे देशों के प्रमुख नेता अपने लोगों के बीच जाने से नहीं हिचक रहे थे तो इस देश के नेता तभी निकलते थे जब उन्हें राजनीति करनी होती। यदि पाँच साल में चुनाव न हो तो वे किसी से मिले भी नहीं तो आश्चर्य नहीं।
इस दौर में सबसे हैरानी की बात तो वे नामधारी संगठनों की बेरुख़ी रही जो समाजसेवा के लिए चर्चा में रहते थे । वे मजबूरो की मदद के दौरान ग़ायब थे। जैसे उनका इस महामारी से कोई सरोकार ही नहीं था, ये वे संस्थाए हैं जो सिर्फ़ सरकार से अनुदान लेने ही स्थापित है, और उस अनुदान की राशि का एक बड़ा हिस्सा अपने वेतन और आफिस पर ख़र्च करते हैं ।
लेकिन वास्तव में समाजसेवियों ने जिस तरह से मन लगाकर काम किया वह अद्भुत है, और सरकार को इन समाजसेवियों से सिखना चाहिए कि आम आदमी की मदद कैसे की जाती है ।
लेकिन सत्ता को तो केवल अपनी रईसी से मतलब है , इसलिए उसने लॉकडाउन के दौरान किसी की सुध नहीं लेने की ज़रूरत ही नहीं समझी। जब तक लोगों की तकलीफ़ सड़क पर आकर तड़फने नहीं लगी तब तक उन्हें पता भी नहीं चलता है कि वास्तव में लोग किस तरह से तिल तिल कर मर रहे हैं।

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