लॉकडाउन -15
यदि सरकार वास्तव में कोरोना संकट से मुक्ति चाहती तो वह राज्यों के भरोसे सब कुछ नहीं छोड़ती, लेकिन उसे तो अपनी राजनीति साधनी है, इसलिए उसने संकट के इस दौर में वह सब कुछ किया , जिससे उसकी राजनीति सधतीं है। लेकिन वास्तव में केंद्रीय सत्ता में बैठे लोग राजनीति भी नहीं कर रहे थे , वे अपनी महत्वकांक्ष की उस मृगतृष्णा के पीछे दौड़ रहे हैं, जिसकी परिणिति केवल थक कर गिर जाने में होती है, वे यह भी नहीं समझ पा रहे थे कि 130 करोड़ के देश में जो विविधता भरा जीवन है , उसके लिए किस तरह की सोच और योजना होनी चाहिए। कोरोना से लड़ाई इतनी आसान नहीं है । अनलॉक -१ के सफ़र के जब कुछ भी नहीं सुधरा तो मामूली बंदिशो के साथ अनलॉक -२ की घोषणा कर दी गई, लेकिन अब भी कुछ भी साफ़ नहीं था। व्यापारी , मध्यम वर्ग तो परेशान थे हीं मज़दूर भी रोज़गार नहीं मिलने की वजह से वापस लौटने लगे । हालाँकि लौटने वालों की संख्या कम थी , लेकिन उनकी व्यथा सरकार की विफलता को उजागर कर रहा था। वापस शहर लौटने वाले मज़दूरों ने साफ़ कहा कि राशनकार्ड नहीं होने के कारण उन्हें मनरेगा में काम नहीं दिया और न ही रोज़गार की कोई व्यवस्था है , ऐसे में भूखे मरने की बजाय शहर वापस लौट रहे हैं । पेट की भूख से बड़ा कोरोना का डर नहीं है।
धर्मेंद्र पुनिया ने तो कालेज की पढ़ाई को ही मुद्दा बना दिया वे लिखते हैं-सरकार ने अनलॉक टू की नई गाइडलाइन जारी कर दी है जिसमें रात को 10:00 बजे तक लोगों के आवागमन की छूट है साथ ही स्कूल और कॉलेजों पर पूर्व की भांति प्रतिबंध रहेगा और भी अन्य जो प्रतिबंध अनलॉक वन में थे वह यथावत रखे गए हैं स्कूलों पर प्रतिबंध छोटे बच्चों को ध्यान में रखते हुए समझ में आता है लेकिन कॉलेजों पर प्रतिबंध लगाकर सरकार युवाओं का वर्ष खराब करने पर आमदा है जहां कॉलेजों मेंबच्चों के अभिभावक लाखों रुपए की फीस देकर इंजीनियरिंग मेडिकल के कोर्स दाखिले के लिए लिए देते हैं वही अन्य डिप्लोमा एवं डिग्रियों के लिए भी हजारों में फीस भरते हैं ऐसे में उच्च शिक्षा के माध्यम से छात्रों को कॉलेजों से वंचित रखना कहां तक उचित है यह समझ से परे है 18 वर्ष से अधिक के विद्यार्थी ही कॉलेजों में पहुंच पाते हैं यह युवा वर्ग जब सरकार चुनने की क्षमता रखते हैं तो वह अपने भविष्य की चिंता भी बेहतर ढंग से कर सकता है वह क्या अपने आप को स्वस्थ नहीं रख सकते या सोशल डिस्टेंसिंग जैसे कानूनों की अवहेलना वह क्यों करेंगे घर रह कर उच्च शिक्षा में अध्यनरत छात्रों का 1 वर्ष अगर खराब होता है तो मां-बाप का भी भारी-भरकम खर्चा जो कि उन्हें पढ़ाने लिखाने पर खर्च होता है वह व्यर्थ जाएगा वही 1 साल और बेरोजगार वह रहेंगे जल्द से जल्द उच्च शिक्षा में अध्यनरत छात्रों के लिए अगर सरकार कॉलेजों को खोल देती है युवाओं का वर्ष खराब होने से बचेगा वही देश के लिए बेहतर इंजीनियर डॉक्टर समय से तैयार होकर बाहर आ सकेंगे नर्सिंग करने वाले बच्चे डिप्लोमा करने वाले बच्चे व पोस्ट ग्रेजुएशन करने वाले युवाओं में इतनी समझ तो है कि उन्हें इस तरीके से आगे जीवन जीना है अतः उनकी भविष्य को ध्यान में रखते हुए जल्द से जल्द कॉलेजों को खोलने की अनुमति सरकार को दे देनी चाहिए बहुत सारे विद्यार्थी तो ऐसे भी हैं जिन्होंने एजुकेशन लोन लेकर अपनी पढ़ाई जारी रखिए ऐसे लोगों के सामने आगे पैसे चुकाने का सवाल भी खड़ा होता है वही बहुत से विद्यार्थियों की परीक्षाओं ना होने की वजह से डिग्रियां अधर में लटकी है वह आगे ना तो नौकरियों के लिए अप्लाई कर सकते हैं नहीं और कोई काम शिवाय परीक्षा होने का इंतजार करने के ऐसे सैकड़ों करोड़ों की तादाद में विद्यार्थियों का भविष्य अंधकार में लटका हुआ है और यह स्थिति कब तक बनी रहेगी सरकार ही जानती है इसका नुकसान पूरे समाज को, उठाना पड़ रहा है।
इसके बाद जब तीस जून को प्रधानमंत्री ने राष्ट्र के नाम सम्बोधन करने की घोषणा की तो लगा इस बार कुछ नई योजना, नई राहत के साथ आएँगे लेकिन न राष्ट्र के नाम सम्बोधन की गरिमा ही बची न कुछ नया हुआ। हाँ, उन्होंने अपनी पीठ फिर थपथपाई की उनके द्वारा सही समय में लॉकडाउन करने से भारत की स्थिति दूसरे देशों से बेहतर है लेकिन सच तो यही है की जान बचाने होली नहीं मनाने के बावजूद लॉकडाउन के लिए मध्यप्रदेश में सरकार बनने का इंतज़ार किया गया । लेकिन वे जाने अनजाने में बेहतर स्थिति के लिए चिकित्सा सुविधा की तारीफ़ कर गए जबकि इससे पहले उनका ही दावा था कि 70 साल में इस देश में कुछ नहीं हुआ जबकि हक़ीक़त यह है कि छः साल में कोई अस्पताल नहीं बना सिर्फ़ घोषणा हुई और आज कोरोना से लड़ाई में जो अस्पताल मौत के आँकड़ो को रोक रहे है पूर्व के सरकारों के द्वारा स्थापित अस्पताल हैं ।
प्रधानमंत्री के इस सम्बोधन के बाद कृष्णकांत जी लिखते हैं- कम से कम देश के प्रधानमंत्री को ये समझना चाहिए कि 'प्रधानमंत्री का देश के नाम संबोधन' का मतलब और महत्व क्या होता है. उन्हें अपने अधिकारियों के हिस्से का मीडिया कवरेज भी नहीं खाना चाहिए. बेहतर होता कि आज की घोषणा केंद्रीय स्तर के अधिकारी करते और पीएम इस बारे में ट्वीट कर देते. कल से कहा गया कि पीएम का राष्ट्र के नाम संबोधन होगा. आज 4 बजे तक देश ने अनुमान लगाया कि चीन संकट पर कुछ बोलेंगे, 16 हजार मौतों पर कुछ बोलेंगे, महामारी, बेरोजगारी, गरीबी, महंगाई, पलायन आदि पर कुछ बोलेंगे. कोई बड़ी घोषणा करेंगे, लेकिन कहीं कुछ नहीं था. खोदा पहाड़ तो निकली चुहिया. प्रधानमंत्री को यह समझना चाहिए कि यदि कोई महत्वपूर्ण घोषणा न करनी हो तो उन्हें ऐसा क्षणिक स्टंट नहीं करना चाहिए. जबसे लॉकडाउन हुआ, रघुराम राजन जैसे कई अर्थशास्त्री सलाह दे चुके हैं कि अनाज के भंडार भरे हैं, जनता को मुफ्त राशन मुहैया कराया जाए. लोगों का पेट भरना राष्ट्र-राज्य का दायित्व है. कुछ-एक महीने अनाज देने की अवधि बढ़ाई तो इसके लिए 'प्रधानमंत्री का देश के नाम संबोधन' नहीं होना चाहिए. प्रधानमंत्री पद की गरिमा को बनाए रखना भी प्रधानमंत्री का दायित्व है. हमारे प्रधानमंत्री को नहीं मालूम है कि वे जितना समझ पा रहे हैं, प्रधानमंत्री का पद उससे बड़ी चीज है.
संदीप नाईक ने तो मध्यम वर्ग की उपेक्षा पर तीखी टिप्पणी की - मध्यम वर्ग झुनझुना बजाओ - तुम इसी लायक हो, मेहनत करो, टैक्स भरो और घण्टा बजाओ इस धन्यवाद और नमन की माला बनाकर गले में पहन लो और जुलूस निकालो अपना
याद आते है अपनी लॉ की कक्षा के वे छात्र जो डेढ़ दो लाख की बाइक पर आते है, एक्टिवा चलाते है, रोज पार्टियां करते है - हजार डेढ़ हजार यूँही उड़ा देते है और स्कॉलरशिप लेते है - अल्पसंख्यक, दलित और पिछड़े होने के नाते, और हम मध्यम वर्गीय जेब से रुपया लगाकर किताबें खरीदे, फीस भरें और चुपचाप भी रहें - क्योकि मध्यम वर्गीय है इस देश मे सिवाय जूते खाने के कुछ और है ही नही
क्या यह राशन सबको नही दिया जा सकता, क्या बिजली के बिल नवम्बर तक माफ़ नही किये जा सकते, क्या स्थानीय निकायों के बिल मसलन पानी, हाउस टैक्स माफ़ नही किया जा सकता , क्या पेट्रोल डीज़ल सस्ता नही किया जा सकता, क्या 6 गैस की टँकीया नही दी जा सकती निशुल्क,
तुम रिस्क लेकर नौकरी करो, 70 % कम तनख्वाह लो, दान करो, दया दिखाओ - ढोल वाले से लेकर शनि महाराज तक के लिए -काम वाली बाई को भी तनख्वाह दो भले वो चार माह से न आ रही हो - मरो, पर देश हित में काम करो - क्योकि इन 80 करोड़ गरीब लोगों को पालना सरकार की नही - तुम्हारी जिम्मेदारी है, ये सरकार विधायक सांसद खरीदेंगे और महामारी बढ़ाएंगे
उच्च वर्ग को कोई फर्क नही पड़ रहा - ज्यादा कसोगे तो वो तुम्हारा नाड़ा खोलकर रुपया लेकर भाग जाएगा विदेश और तुम बजाते रहना घण्टा - वो चंदा भी देगा , तुम जैसे भिखारियों को और अपने इशारों पर भी नचायेगा,
कुल मिलाकर इस देश के मध्यम वर्ग को तुमने विशुद्ध बेवकूफ समझ रखा हैं - गलती तुम्हारी नही है - यह वर्ग है ही कायर, दब्बू और घोंचू जो थाली घण्टा बजाता है और तुम्हारे जयकारे -
डूब मरो रे - डूब मरो , तुमसे बड़ा बेवकूफ कोई नही मध्यम वर्गीय जाति वालों
जो बात एक दो कौड़ी का बाबू कह सकता था, एक प्रेस विज्ञप्ति से बताया जा सकता था वह बताने के लिए एक प्रधान मंत्री पूरे देश के 138 करोड़ लोगों का समय बर्बाद कर देता है यानी सरासर बेवकूफ बनाता है और 138 x 17 मिनिट की इस बेवकूफी का खर्च भी तुम्हारी ही खाल उधेड़ कर लिया जाएगा मध्यम वर्गीय - समझे या नही
यह आक्रोश है , मध्यम वर्ग का ! लेकिन यह भक्ति काल है।
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