लॉकडाउन-6

4
कल्याण मार्ग के उस बंगले में अचानक फिर हलचल बढ़ गई । एक एक कर आधा दर्जन चमचमाती गाड़ियों के पोर्च में रुकने की गूँज से सुरक्षा गार्ड मुस्तैद हो गए। बूटों की आवाज़ तेज़ हो गई।
उसी कमरे के उसी गोल टेबल के बीच बैठे एक गंजे ने फिर सर पर हाथ फेरा तो सबकी निगाह उसकी ओर चली गई , वह बोलने लगा , ऐसे कैसे चलेगा कोरोना का केस तो बढ़ता ही जा रहा है । जमात की वजह से लोग अभी सत्ता के कार्यों की तरफ़ ध्यान नहीं दे रहें है , भले ही कुछ लोग पैदल या अपने साधनो से लौट रहे हैं लेकिन राज्य सरकारों और समाजसेवियों ने सब कुछ संभाल रखा है । हम छात्रों को लाने की अनुमति नहीं दे सकते।
लेकिन उत्तरप्रदेश की सरकार ने ज़ोर देकर कहा है कि उनके बहुत से अधिकारियों और पार्टी शुभचिंतकों के बच्चे राजस्थान में फँसे हैं और उन्हें लाना ज़रूरी है। उनका कहना है कि सत्ता में आने के बाद भी उनकी मदद नहीं की जा सकी तो फिर सत्ता आने का मतलब क्या है । यही बात राजवीर ने भी दोहराई ।
लेकिन इससे तो दूसरे प्रदेश के लोग भी हल्ला मचाएँगे। इस बार प्रत्युष ने आपत्ति की।
कोई नहीं मचाने वाला? कोई मुख्यमंत्री नहीं चाहेगा कि बेवजह छात्रों को लाकर झंझट पाले और कोई कोरोना निकल गया तो राज्य की छवि अलग ख़राब होगी । ठीक है लेकिन यह सब गोपनीय तरीक़े से होना चाहिए। बेवजह का हंगामा न हो ?
इस बैठक के दो दिन बाद ही उत्तरप्रदेश में कोटा में पढ़ने वाले  छात्रों को योगी सरकार के द्वारा लाने की चर्चा शुरू हो गई । मीडिया में ख़बर आते ही सबसे पहले बिहार सरकार ने ही हंगामा मचा दिया कि जब प्रधानमंत्री ने स्पष्ट कहा है कि कोई अपनी जगह से कहीं नहीं जाएगा । सब लॉकडाउन का पालन करें तो फिर इस तरह की अनुमति लॉकडाउन के गाइड लाईन का उल्लंघन है और जब सरकार ही उल्लंघन करेंगे तो इसका परिणाम घातक होगा ।
नीतीश सरकार के प्रहार से तिलमिलाई भाजपा के नेताओ ने योगी को सही ठहराने उलटा नीतीश पर ही अपने राज्यों के छात्रों की चिंता नहीं करने का आरोप मढ़ दिया ।
फिर क्या था ! हर राज्य के छात्र कहीं न कही तो फँसे थे । कोटा में ही प्रायः हर राज्य के बच्चे फँसे थे, हर राज्य सरकार की तरफ़ से अनुमति माँगी जाने लगी ।
अचानक छात्रों को लाने की राज्य सरकारो की मंशा पर सवाल उठने लगे और पूरा देश कहने लगा कि चूँकि पढ़ने जाने वाले बच्चे पैसे वालों के घर के है इसलिए सभी राज्यों को चिंता है लेकिन ग़रीब मज़दूर भी तो लौटना चाहता है , क्या ग़रीब होने की वजह से सरकार ध्यान नहीं दे रही है?
समूचे देश से मज़दूरों की पीड़ा को लेकर बवाल मचने लगा । 
इधर मुख्यमंत्री योगी को अनुमति देकर केंद्रिय सत्ता फँस चुकी थी तो मज़दूर भी संयम खोने लगे। मज़दूरों का विश्वास डगमगाने लगा और जिसे जो साधन मिला उसी से अपने गृह नगर की ओर चल पड़े। यहाँतक कि पाँच सात सौ किलोमीटर पैदल , सायकल तक से जाने लगे। सरकार की तरफ़ से हुई चूक ने मज़दूरों को सड़कों पर उतार दिया था । भूखे, प्यासे, तड़फते, मरते मज़दूरों की इस स्थिति के लिए कौन ज़िम्मेदार था ? सरकार ज़िम्मेदारी लेने से बचने लगी । हालात को देखते हुए कई ऐसे लोगों ने भी फ़ायदा उठाना शुरू किया जो अब तक अपने मज़दूरों और कर्मचारियों के लिए भोजन की व्यवस्था कर रहे थे , इन लोगों ने भी अपने यहाँ से मज़दूरों को निकाल दिया , सड़कों पर घर लौटते मज़दूरों का रेला निकलने लगा।
टेलीग्राफ़ ने एक रिपोर्ट छापी । राजस्थान के जालौर के रहने वाले प्रवीण की। जिसने कर्नाटक के बेंगलूर से घर पहुँचने के लिए छः दिन तक पैदल सफ़र किया । 28 साल का प्रवीण वेल्डर का काम करता है और यह यात्रा 18 सौ किलोमीटर का था। उसने यह यात्रा कभी एलपीजी गैस से भरी ट्रक से तो कभी दूध के ट्रक से पूरी की । इस ख़बर ने सनसनी मचा दी तो दूसरी ख़बर आइ कि टेंकर में छुप कर दो दर्जन लोग वापस लौट रहे थे। मज़दूरों की व्यथा और पीड़ा की ख़बर से मानवीय संवेदना चितकार उठा , राह में दम तोड़ते मज़दूर, भूखे प्यासे घिसटते मज़दूर, पुलिस की लाठियाँ खाते मज़दूर, प्यास से तड़फते बच्चे, महिलाएँ । सब तरफ़ हाहाकार मचने लगा लेकिन सत्ता तो तभी जागती  है जब किसी घटना को लेकर उन पर प्रहार हो।
अंधेरा गहराने लगा था , मज़दूरों की तकलीफ़ बढ़ने लगी थी , विभिन्न राज्यों की सरकारें अपनी सुविधानुसार ही मदद कर रहे थे। समाजसेवी संस्थाए आगे आ चुकी थी । देश भर के प्रायः सभी राज्यों की सीमाओ पर मज़दूरों की पीड़ा ख़ून के आँसू बनकर बहने लगा था। 
एक बात तय हो हो चुका था कि सत्ता से अब कुछ नहीं होने वाला । कोई सत्ता अपने देश के लोगों , अपने लोगों को बिठाकर नहीं खिलाने वाली। तकलीफ़ों से जूझ रहे लोगों को उनके हाल पर छोड़ देने का यह विभत्स दौर है।
करुणा, वेदना, सब सत्ता के लिए चुनावी शब्द है। जिसका सत्ता पर बैठने के बाद कोई अर्थ नहीं रह जाता । 
जिस तरह से यह सच है कि वेश्या युद्ध की प्रथम संतान है , उसी तरह ग़रीब, मज़दूर राजनीति करने का सिर्फ़ मुद्दा है। केवल राजनीति, और महामारी काल में तो ग़रीब, मज़दूर के नाम पर राजनीति चमकाने का कोई भी अवसर कौन छोड़ना चाहेगा। इसलिए इस मसले पर ग़रीबों के आँसू पोछने से ज़्यादा अपनी राजनीति चमकाने का विभत्स खेल हो रहा था। 
पूरे कोरोना काल में सरकार के साथ खड़ी मीडिया की भी संवेदना जाग चुकी थी । और किसकी संवेदना नहीं जागती , जो मज़दूरों की व्यथा देख सुन रहा था वे सभी सरकार की भर्त्सना कर रहे थे। केवल उन लोगों को छोड़कर जिनके लिए सत्ता ही सब कुछ है । उनके लिए क्या करुणा, क्या वेदना। वे तो अब भी तड़फते मज़दूर की ख़बर को राजनीति से जोड़ रहे थे। 
सरकार क्या करने वाली है , किसी को ख़बर नहीं थी। 176  करोड़ का पैकेज कैसे पहुँचेगा कोई नहीं समझ पा रहा था । विरोधियों की बातों को ट्रोल करने की परंपरा के चलते , ताली-थाली, दीप प्रज्वलित करना सब कोरोना की लड़ाई का हिस्सा माना जा रहा था।
राज्य सरकारों ने अब तक स्थिति संभाल कर रखी थी लेकिन दूसरे राज्यों से मज़दूरों, छात्रों व दूसरे लोगों की बढ़ती आवाजाही से सब बेक़ाबू होने लगा।
सबसे बड़ी मुसीबत तो मध्यम वर्ग की थी। पैसा ख़त्म होने लगा , ऐसे में वे भोजन की लाईन में भी नहीं लग सकते थे। प्रधानमंत्री ने अपील तो कर दी थी कि कोई किसी का वेतन न रोके , लेकिन जो लोग वेतन रोक रहे थे , उनके ख़िलाफ़ कार्रवाई का कोई तरीक़ा नहीं था । आख़िर कोई किसी को कितनो दिनो तक दुकान या कम्पनी बंद होने पर पैसा दे सकता है।
कई लोगों की ज़िंदगी केवल किराए से चलती है, किरायेदारो ने प्रधानमंत्री के आह्वान पर किराया देना बंद कर दिया।
देश में 11 करोड़ से अधिक स्लम है , आठ बाई दस के कमरे में कोई कितने दिन लॉकडाउन रह सकता था।
सब तरफ़ सरकार की आलोचना होने लगी तो ट्रोल आर्मी सक्रिय हो गया और वे समस्याओं से ध्यान भटकाने नए-नए  झूठ अफ़वाह परोसने लगे । सवाल उठाने वाले को देश द्रोही बताया जाने लगा । 
पूरी दुनिया कोरोना से लड़ रही थी , लेकिन यहाँ कोरोना की आड़ में राजनीति चमकाने की लड़ाई हो रही थी।
राज्य सरकारों की अपनी दिक़्क़तें थी। वैसे भी देश की आर्थिक स्थिति तो कोरोना के पहले ही बुरी तरह ख़राब कर दी गई थी। लेकिन इस मामले में सत्ता के लिए कोरोना वरदान बन कर आया था। सत्ता की हर कमियाँ और ग़लतियों को कोरोना के बहाने छिपाया जा रहा था।
विचित्र खेल चल रहा था सरकार लगातार ग़लती कर रही थी ,
लॉकडाउन सिर्फ़ कहने का रह गया था या सिर्फ़ कमज़ोर लोगों के लिए रह गया था, कहा जाय तो ग़लत नहीं होगा।
सामाजिक दूरी के नियम का नेता ही मज़ाक़ उड़ा रहे थे , लेकिन जब सत्ता ही मज़ाक़ उड़ाए तो क्या कहा जा सकता है। सब्ज़ी बाज़ार तो कोरोना फैलाने का प्रमुख केंद्र दिखने लगा । पूरे देश में यही हाल था, और सरकारें अपनी ज़िम्मेदारी से भाग रही थी, जिसका दुष्परिणाम लगातार सामने आने लगा। वायरस का क़हर अपनी चपेट में न केवल अधिकाधिक लेने लगा बल्कि मौत भी पैर पसारने लगा।

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

लॉकडाउन -5

लॉकडाउन -4

लाकडाउन -42