लाकडाउन -8
सबसे हैरानी की बात तो यह है कि किसी भी सरकार के पास मज़दूरों का पर्याप्त या सही सही डाटा नहीं है । सिर्फ़ अनुमान है कि फला राज्य से इतने लाख मज़दूर दूसरे प्रदेशों में कमाने गए हैं। बालश्रम क़ानून बनाए तो गए हैं लेकिन इस क़ानून का भी कोई मतलब नहीं है। सरकार के पास आज की तारीख़ में कोई विश्वसनीय रिकार्ड नहीं है कि किस राज्य में कितने बच्चे बालश्रम में झोंक दिए जाते हैं ।
ऐसे ही एक सुबह बस्तर की ख़ूबसूरत वादियाँ चित्कार उठी। लेकिन यह चित्कार किसी नक्सली हमले में मारे जा रहे पुलिस जवानो या पुलिस के फ़र्ज़ी मुठभेड़ में मारे जा रहे ग्रामीण लोगों से बिलकुल अलग थी । यह चित्कार दिल दहला देने वाली चित्कार से अलग मानवीय संवेदना को झकझोर देने वाली थी। यह चित्कार थी 12 साल की मासूम जमलो की। बीजापुर के आदेड गाँव की यह मासूम बच्ची जमलो मडकानी की मौत भूख और प्यास से हो गई।
कोई कल्पना कर सकता है कि इक्कीसवी सदी के इस दौर में भी कोई भूख और प्यास से मर सकता है। लेकिन लॉकडाउन के चलते ऐसी मौते हो रही थी। लगातार हो रही थी। और इन मौतों के बीच सरकारें अपनी पीठ भी थपथपा रही थी और दावा भी कर रही थी कि हमने सबके लिए पूरी व्यवस्था कर रखी है। सबको राहत सामग्री और पैसे दिए जा रहे हैं । लेकिन फिर सवाल तो यही उठता है कि जब सरकारें सब कुछ कर ही रही थी तो जमलो कैसे मर गई। संवेदना में डूबे कई लोगों ने तो हत्यारी सरकार की भी संज्ञा दे डाली। जमलो की मौत असहय तो थी ही सरकारी तंत्र की क़लई खोल कर रख दिया था।
बहुत से लोग यह सोच भी रहे होंगे कि बारह साल की वह बच्ची मज़दूर कैसे हो सकती है। लेकिन सच भयावह है और यह देश का सच है जो रईसी में जी रहे सत्ता के गाल पर तमाचा है लेकिन इस तमाचे के बाद भी आप उनसे शर्म की उम्मीद न करें। उनकी चमड़ी मोटी हो चुकी है और आँखो का पानी मर चुका है ।
सरकार ने जब लॉकडाउन बढ़ा दिया तो कितने ही लोग थे , जिनके पास खाने को कुछ नहीं बचा था। उनमें से जमलो भी थी। दो माह पहले ही तो वह अपने गाँव से तेलंगाना मिर्ची तोड़ने की मज़दूरी करने गई थी। जब लगातार लॉकडाउन बढ़ने लगा और काम मिलने की सारी उम्मीदें समाप्त हो गई तो वह भी पैदल ही अपने गाँव की ओर लौट गई , जैसे देश के दूसरे अलग अलग हिस्सों से मज़दूर और उनके बीबी बच्चे लौट रहे थे। पैसे तो थे नहीं। गर्मी का महीना, किस पर रहम करता है जो जमलो पर रहम करता । गाँव पहुँचने के 14 किलोमीटर पहले ही मोदकापाल में ही उसने दम तोड़ दिया । मौत हाहाकारी होता है फिर जमलो जैसे बारह साल की मासूम की मौत तो और भी असहय है।
उसकी मौत की वजह डीहाईड्रेशन बताया गया। यानी शरीर में पानी की कमी हो जाना । तीन दिन से वह पैदल चलते मोदकापाल पहुँची थी। इस बीच उसने कुछ नहीं खाया। छत्तीसगढ़ और तेलंगाना बार्डर में जिस रास्ते से वह पैदल अपने गाँव जा रही थी , उस रास्ते के बीच भद्रकाली, तारगुंडा और मोदकापाल में न जाने कितने सीआरपीएफ कैम्प और अन्य फ़ोर्स तैनात रहे होंगे। क्या इन पर किसी की नज़र नहीं गई या हम इतने संवेदनाशून्य हो गए हैं कि हमारी नज़र ही नहीं जाती। कोरोना संकट में लॉकडाउन का पालन कराने हज़ारों जवानो की ड्यूटी लगाई गई है। क्या उनकी भी नज़र नहीं पड़ी।
क्या जंगलो में भूख प्यास से भटकते कितने ही लोग मौत के मुँह में समा रहे है? क्या तेलंगाना में इन्हें रोका नहीं जा सकता था ? सवाल बहुत से है लेकिन जवाब किसी सत्ता के पास नहीं है । मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने जमलो के परिजनों को पाँच लाख देने की घोषणा भी कर दी, लेकिन इससे जमलो तो नहीं आएगी, और न ही इकलौती संतान के चले जाने का दुःख ही दूर होगा। ता जीवन यह दुःख सालता रहेगा।
ऐसे कितने ही मज़दूरों की व्यथा है , जिसे लिखने बैठा जाय तो कोई नहीं लिख पाएगा।
एक तरफ़ मज़दूरों की व्यथा से देश जूझ रहा था तो दूसरी तरफ़ लॉकडाउन का पालन कराने में पुलिस वालों के हाथ पाँव फूल रहे थे। सत्ता का क्या उसने तो आदेश जारी कर दिया लेकिन ग्राउंड की हक़ीक़त से उसे क्या लेना देना। एक तरफ़ जमात वालों की हरकतों से डॉक्टर और कर्मचारी परेशान थे तो दूसरी तरफ़ ख़रीददारी करने वालों की भीड़ सड़कों पर उतर चुकी थी । कोई किसी को सुनने तैयार नहीं। पुलिस समझाते थक गई तो लाठी का सहारा लेने लगी लेकिन पुलिस का शिकार वे लोग ज़्यादा हो रहे थे जो ग़रीब और मजबूर थे।
यह सच है की पुलिस को ड्यूटी करना मुश्किल हो रहा था और वे कहीं कहीं सख़्त और बेरहम भी हो रहे थे । ऐसे ही एक घटना पंजाब के पटियाला शहर में हो गई। लॉकडाउन के दौरान पुलिस कर्मी द्वारा पास माँगे जाने पर जब बहस बढ़ गई तो एक निहंग सिख ने एक पुलिस कर्मी का हाथ ही तलवार से काट डाला और जाकर गुरुद्वारे में छुप गया। इस घटना की भी तीखी प्रतिक्रिया हुई , वह तो समय पर ईलाज मिल जाने से उस पुलिस कर्मी का हाथ आपरेशन कर जोड़ दिया गया।
देश इन घटनाओं पर आँसू बहा रहा था। नदी में आई अचानक बाढ़ की तरह कोरोना के क़हर का प्रभाव कहे या लॉकडाउन के क़हर का प्रभाव कहें, देश भर से मौत की ख़बर बढ़ने लगी। हालाँकि सरकार के द्वारा अपने ही जनता से किया गया ये पहला ज़ुल्म नहीं है । हक़ माँगते नौजवान, किसान, मज़दूरों पर सत्ता का क़हर तो टूटता ही रहा है , और लोग सब कुछ सब कुछ सहन भी करते रहे हैं, और करते रहेंगे।
लेकिन यह एक ऐसा दौर था जिसमें असंख्य निर्दोष मारे जा रहे थे। रूह कँपा देने वाली ख़बरें लगातार आ रही थी और उतनी ही ताक़त से सरकार भी मदद का दावा कर रही थी । तेज़ धूप और गर्म हवा के थपेड़ों ने हालात को और बिगाड़ दिया था ।
ऊपर से सरकार की चूक और नई नई ग़लतियाँ लोगों के लिए मुसीबत बढ़ा रही थी ।
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