लाकडाउन -9
इसमें कोई संदेह नहीं है कि सत्ता बेहद धूर्त और चालाक होती है, और वह आम जनमानस को बेवक़ूफ़ समझती है । यही वजह है कि सब कुछ खोल दिये जाने के बाद भी इसे लॉकडाउन कहना जारी रखा गया । लेकिन हक़ीक़त में यह लॉकडाउन था ही नहीं, केवल धार्मिक स्थल, शॉपिंग माल, होटल-रेस्टोरेंट और सिनेमा हाल को छोड़ कर सब कुछ खोल दिया गया । कहने को ही कुछ नियम , कुछ बंदिशे थी लेकिन इन नियमों को पालन कराने का कोई तरीक़ा सरकार के पास नहीं था।
जिस तरह से कोरोना के चलते नरसंहार चल रहा था , वह वर्तमान पीढ़ी के लिए हैरान कर देने वाला था । इस सवाल का किसी के पास जवाब नहीं था कि कोरोना के बढ़ते प्रभाव के बाद भी सब कुछ कैसे और क्यों खोला जा रहा है। यह तो वही बात थी कि ख़ुद रईसी में रह लो और आम जनता को मरने के लिए छोड़ दो। और कह दो ख़ुद को बचा सकते हो तो बचा लो। ऐसी स्थिति में तो युद्ध काल में भी सैनिकों को नहीं छोड़ा जाता । और सैनिक प्रशिक्षित होते है । यहाँ जनता को क्या जानकारी थी ।
लोग तिल तिल कर मर रहे थे। सिर्फ़ मृत्यु ही मौत नहीं होती, तिल तिल कर अभावों में और डर डर कर जीना भी मौत के समान है, लेकिन सत्ता को तो अपनी रईसी से मतलब है।
यही वजह है कि कल्याण मार्ग के इस भव्य बंगले में जब मीटिंग हुई तो उद्योगपतियों की चिंता सत्ता की चिंता हो गई क्योंकि आख़िर सरकार में बैठे लोगों की रईसी का ज़िम्मा तो वही उद्योगपति ही उठाते हैं और यदि उद्योगपतियों के पास पैसा नहीं होगा तो वे नेताओ को कहाँ से पैसा देंगे, और नेताओ को पैसा नहीं मिलेगा तो फिर उनकी रईसी और सत्ता का क्या होगा ? ये पूरा चेन है जो सत्ता की रईसी को बरक़रार रखने बनाया गया है।
अपनी रईसी बरक़रार रखने मज़दूरों को काल के गर्त में झोकने का भी खेल हुआ। उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश में तो श्रम क़ानून में ही बदलाव कर दिया गया । ताकि भले ही मज़दूरों का शोषण हो जाए, उद्योगपतियों की कमाई में कमी नहीं होने दी जाएगी। और यह कहा गया कि दूसरे देश से निवेश होगा।
सत्ता अपने हर सही ग़लत फ़ैसले को देश हित से जोड़ने लगी। यानी ग़लत का विरोध करो तो आप देश द्रोही हो जाओगे। भारतीय प्रजातंत्र के इतिहास में यह पहली बार हो रहा था कि सत्ता के ग़लत निर्णय का विरोध करने का मतलब देश द्रोही।
लॉकडाउन कहाँ था? राज्य सरकारें जब केंद्र पर पैसों के लिए दबाव बनाने लगी तो सब कुछ मामूली बंदिशो या नियमो में ढील देकर खोलने का फ़रमान जारी कर दिया।
हैरान करने वाली बात तो यही रही कि धार्मिक स्थल को तो बंद करने का फ़रमान था , लेकिन शराब दुकाने खोल देने की छूट थी । और इससे भी ज़्यादा हैरानी की बात तो यह रही कि जो कांग्रेस छत्तीसगढ़ में शराब बंदी के नाम पर सत्ता में आई, उसने सबसे पहले शराब दुकान खोल दी । ऐसा नहीं है कि लॉकडाउन के दौरान शराब नहीं बिक रही थी , इस दौरान भी सत्ता से जुड़े लोग दो गुणी क़ीमत पर शराब बेच रहे थे । कहने को तो यह अवैध था, लेकिन वास्तव में इसमें पूरा सरकारी तंत्र लगा हुआ था ।
यह सरकार की भयावह ग़लती या चूक थी । इसका दुष्परिणाम आने लगा , शराब दुकान में भीड़ के चलते कोरोना फैलने का ख़तरा तो बढ़ा ही इससे भी बुरा उन मज़दूरों के साथ हुआ जो समाजसेवियों के भरोसे थे , शराब दुकान में लाइनों में ग़रीबों को देख समाजसेवियों का ग़ुस्सा फूट पड़ा और वे घरों में बैठ गए । जिसके चलते ज़रूरतमंद लोगों की मुसीबत बढ़ गई लेकिन सत्ता को इन सब बातों से क्या करना।
यह कैसा लॉकडाउन था और लॉकडाउन कहकर किसे बेवक़ूफ़ बनाया जा रहा था, यह तो सरकार ही जाने, लेकिन जिस तरह से हालात निर्मित हो रहे थे , उसे देखते हुए सत्ता ने फिर एक मज़ाक़ किया।
बीस लाख करोड़ के पैकेज का मज़ाक़ ! यह बीस लाख करोड़ का पैकेज को राहत पैकेज बताया गया, लेकिन आर्थिक जानकारों का कहना था कि यह बीस लाख करोड़ नहीं केवल दो लाख करोड़ का पैकेज था क्योंकि इस पैकेज में उन बातों को भी शामिल कर लिया गया जो सरकार पहले से ही कर रही थी । जैसे मनरेगा में साठ हज़ार करोड़ तो वह बजट में ही प्रावधान की थी , सिर्फ़ चालीस हज़ार करोड़ ही अतिरिक्त देने की बात और हुई लेकिन पैकेज में बताया गया एक लाख करोड़।
झूठ बोलने का एक चलन हो गया है। झूठ बोला गया कि उज्जवला योजना के तहत ग़रीबी रेखा के नीचे रहने वालों को गैस सिलेंडर दिया जा रहा है लेकिन सच तो यह था कि सितम्बर 2019 के बाद से अभी तक यानी मई 2019 तक किसी को भी सिलेंडर नहीं दिया गया। और अभी भी हज़ारों लाखों आवेदन क़तार में हैं। इसी तरह सरकार ने कह दिया कि सभी किसानो को किसान सम्मान निधि दिया जा रहा है लेकिन हक़ीक़त तो यह है कि यह सम्मान निधि कभी भी पूरे किसानो को नहीं दी गई और कोरोना काल में तो केवल आधे किसानो को ही दी गई ।
केवल घोषणाएँ हो रही थी , और योजना का लाभ ज़रूरत मंद को मिल रही है या नहीं इसकी खोज ख़बर लेने वाली मीडिया भी सत्ता के प्रभाव में ख़ामोश रही। हैरानी की बात तो यह भी थी कि मीडिया भी सब कुछ खुल जाने के बाद ही सरकार की भाषा में ही लॉकडाउन कहते रही ।
लेकिन इस लॉकडाउन ने बाज़ार खोल दिए थे और बाज़ार खोलने का मतलब जाने अनजाने में कोरोना को फैलने का मौक़ा देना था। लेकिन जब सवाल पेट का हो तो वायरस का डर समाप्त हो जाता है। सरकार कुछ नहींकर रही थी। और पैसे ख़त्म होने लगे थे। इसलिए बाज़ार खुल गया। संकट केवल छोटे व्यापारियों का नहीं था । संकट तो वहाँ काम करने वाले लोगों के सामने था। वहाँ काम करने वाले तो सिर्फ़ संस्थान खुल जाने की प्रतीक्षा कर रहे थे। उन्हें लगता है कि संस्थान खुल जाएँगे तो उनका वेतन मिलना शुरू हो जाएगा । उन्हें इस बात से कोई लेना देना नहीं था कि सामान बिके या न बिके।
और व्यापारी सोच रहा था कि दुकान खुलेगी तो सामान तो बिकेगा ही। लेकिन इस बात का किसी के पास जवाब नहीं था कि आख़िर सामान बिकेगा कैसे?
यही वजह है कि अब तक रोज़ हज़ार-दो हज़ार तक सिमटे कोरोना का केस दस हज़ार रोज़ के क़रीब पहुँच गया। प्रकरण बढ़ रहे थे, रोज़ बढ़ रहे थे। लोग मर रहे थे, रोज़ मर रहे थे। अस्पतालो में मरीज़ों की संख्या चिंताजनक हो गई लेकिन सत्ता को इससे कोई सरोकार नहीं था, उसने तो कह दिया आत्मनिर्भर बनो, स्वदेशी अपनाओ।
कल तक जो नारा था कोरोना को हराएँगे वह भी बदल दिया , अब सरकार का नया नारा था- कोरोना के साथ जिएँगे !
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