लॉकडाउन -२
प्रस्तावना
एक भीषण मरण !
गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है- आपुन आवे ताहि पर, ताहि जहाँ ले जाय। विचित्र बात! तुलसीदास जी के इस कथन का पता किसी को नहीं है। ऊँचे से ऊँचे पदों पर बैठा व्यक्ति भी इससे अनजान है, और अर्थ का पता हो तब भी उसे समझ नहीं है । और समझ भी होगा तो उसे याद नहीं रहता । क्योंकि सत्ता का चरित्र ही ऐसा है। या सत्ता में बैठने वाला व्यक्ति कभी इसे स्मरण नहीं करना चाहते , क्योंकि सत्ता में बैठे लोग आत्मवलोकन से डरते हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि सत्य उजागर हो गया तो उनकी बेवक़ूफ़ियाँ , उनकी ग़लती जनता जान लेगी। उससे अच्छा है, सत्य ढका रहे।
पूरा विश्व कोविद-19 यानी कोरोना से जूझ रहा है। कीड़े-मकोड़ों की तरह मरते लोगों को बचाने का कोई ईलाज ही नहीं है, तब सत्ता के सामने कई तरह की चुनौती है। लेकिन सबसे बड़ा सत्य तो यह है कि उसके सामने सबसे बड़ी चुनौती लोगों को तकलीफ़ों से मुक्ति दिलाने की बजाय सत्ता की रईसी को बरक़रार रखने की है । और इसी रईसी को बरक़रार रखने के सच को ढाँकने का प्रपंच किया जाने लगा । सड़कों पर तड़फते मज़दूरों , सम्मान आहत होते मध्यम वर्ग को बहलाने की कोशिश में सत्ता क्या कुछ नहीं करता । आत्मनिर्भर से लेकर स्वदेशी तक के राग को नज़र अन्दाज़ भी कर दें तो राहत पैकेज के धुएँ के बीच आम आदमी धुँधली आँखो से वह देखने की कोशिश कर रहा है जिसे सत्ता कभी नहीं दिखाना चाहती । कोरोना काल में सरकार ने लॉकडाउन किया। किसे किया ? कौन हुआ लॉकडाउन ? लॉकडाउन का क्या अर्थ है, उस आठ बाई दस के झुग्गियो में रहने वालों के लिए।
क्या सत्ता को देश की समझ होती है? समझ तो लोगों को इस बीमारी की भी नहीं है, और समझ हो भी तो क्या , भूख उसे यह सब समझा पाएगा?
विजय समझ भी जाए लेकिन , उसके दस साल की बेटी मिनु तो सिर्फ़ दो टाईम खाकर नहीं रह सकती , मिनु कैसे आठ बाई दस के कमरे में चौबीस घंटे बीता पाएगी?
लॉकडाउन तो मध्यमवर्गीय परिवार के जगत के लिए भी कठिन है। दुकान खुलेगा नहीं तो दुकान मालिक पैसा कहाँ से देगा? सम्मान का जो चोला उसने इतने सालों तक बैंकों के ईएमआई के सहारे पूरी कालोनी में ओढ़ कर चला है , उसे वह खाने की लाईन में लगकर कैसे समाप्त कर दे, वह ख़ुद नहीं मर जाएगा?
पाठकों के आग्रह पर लिखने बैठा हूँ तो सोचने लगा कि इसकी शुरुआत कहाँ से करूँ? नवरात्रि के प्रथम दिवस से करूँ जब लॉकडाउन शुरू हुआ या उससे पंद्रह दिन पहले होली से , जब देश के प्रधानमंत्री सहित विभिन्न प्रदेश के मुख्यमंत्रियों और नेताओ ने कोरोना के डर से त्यौहार मनाने से मना कर दिया था। शुरुआत दिल्ली के मरकज़ से करूँ या पटियाला में निहंग सिख के द्वारा पुलिस वाले की हाथ काटने से, शुरुआत उस मध्यमवर्गीय परिवार की संगीता से करूँ जिसे वीडियो बनाने की वजह से भूखा रहना तो क़बूल था लेकिन अनाज या भोजन लेना मंज़ूर नहीं था । शुरुआत सुदूर बस्तर के बारह साल की मासूम मज़दूर जमलो से भी की जा सकती है, जो वापस पैदल लौटते भूखे प्यासे अपने गाँव पहुँचने से पहले मर गई या प्लेटफ़ार्म में माँ के मृत देह से चादर खींचते तीन साल के बच्चे से भी ।
इस किताब को शुरू करने का सीधा रास्ता भी है, देश के प्रधानमंत्री के द्वारा 21 दिन के लॉकडाउन की घोषणा , लेकिन इससे पाठकों को लगता कि कुछ छूट गया है। हाँ! छूटा अपनी जान बचाने होली नहीं मनाने का निर्णय, या फिर राहुल गांधी का ट्वीट, मध्यप्रदेश में सरकार बनाने की ड्रामेबाज़ी और संसद के दोनो सदनो का लॉकडाउन के ठीक पहले तक चलना।
ऐसे में इस किताब की शुरुआत कहाँ से की जाय , यह बेहद मुश्किल भरा काम लगने लगा । क्योंकि जब शुरू कर रहा हूँ तब लॉकडाउन समाप्त हो गया है, और सत्ता अब अनलॉक करने की घोषणा कर दी है।
कोविद-19 यानी कोरोना चरम पर है , महानगरो से विभिन्न राज्यों की राजधानी से होते हुए मोहल्लों-गाँवो में पहुँचने लगा है। विडम्बना तो यही है कि जब देश में कोरोना का प्रभाव कम था तब हम लॉकडाउन में थे लेकिन जब मरीज़ों की संख्या जैसे जैसे बढ़ने लगी वैसे वैसे लॉकडाउन की बंदिशे हटाई जाने लगी। सत्ता अपनी सफलता की पीठ भी थपथपा रहा है। लेकिन इस पर सवाल ही बेमानी है जब सत्ता झूठ और मक्कारी पर उतर आए।
भारत के सामने पहले ही चुनौती कम नहीं थी। ऐसे में कोरोना के क़हर ने हम पर चौतरफ़ा प्रहार किया है। आर्थिक स्थिति तो ख़राब हुई ही है , बेरोज़गारी की मार ने हमें कहीं का नहीं छोड़ा। उद्योग-व्यापार सब की हालत बिगड़ गई , लेकिन मज़ाक़ है सत्ता की रईसी ज़रा भी कम हुई हो? बल्कि कई नेताओ के लिए कोरोना त्यौहार हो गया है। वे दवाई , सेनेटाईज़र, मास्क से लेकर अनाज बाँटने तक में घपले-घोटाले कर रहे हैं। संकट के इस दौर में सभी नेता अपनी राजनीति चमकाने में लगे हैं । न कोई उद्योगपतियों की हालत पर चर्चा करने तैयार हैं, और न ही मज़दूरों पर ही बात करने तैयार हैं। मध्यम वर्ग पर तो न पहले कभी किसी सरकार ने ध्यान दिया और न ही अब किसी ने ध्यान दिया। ऐसे में जब आपके पास देश या अपने राज्य की समझ ही न हो तो आप इस महामारी से कैसे लड़ सकते हैं।
इसलिए अब कोरोना के ख़िलाफ़ लड़ाई में सभी सरकारों ने पल्ला झाड़ लिया है? और अब ज़िम्मेदारी ख़ुद की है, ख़ुद को जीना है तो ख़ुद ही कुछ करिए! बीमारी से बचने से लेकर पेट की भूख तक की लड़ाई ख़ुद के ज़िम्मे है , क्योंकि सरकार ने अपनी ज़िम्मेदारी यह कहकर पूरी कर ली है कि जब तक इस बीमारी की कोई दवा नहीं आती तब तक वे ज़्यादा कुछ नहीं कर सकते ! और लोगों के लिए पेट से बड़ी कोई बीमारी नहीं है, तब वे क्या करें ?
इस सवाल का जवाब सरकार के पास हो या न हो लेकिन उनके समर्थकों के पास है कि सरकार ने सबको खिलाने-पालने का ठेका थोड़ी न ले रखा है!
शायद इस देश में सरकार इसलिए बनाई जाती है कि उनके विधायक , सांसद जनता के पैसों का उपयोग कर नीति बनाए , भले ही नितियो का कोई मतलब न हो । क्योंकि सत्ता तो उन्ही के पास रहनी है, आज इनके पास, कल उनके पास!
इसलिए लॉकडाउन से पहले की कहानी भी जानना ज़रूरी है, और अनलॉक कैसे और क्यों किया गया यह भी आम आदमी को जानना होगा।
जानना तो उन्हें भी चाहिए जो पट्टा डालकर ज़िंदाबाद-मुर्दाबाद का नारा लगाते अपना जीवन होम कर देते हैं।
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