लॉकडाउन -20
कोरोना सर चढ़ कर बोलने लगा है , लेकिन सत्ता को बिहार, बंगाल की पड़ी है , उसे अपनी रईसी की चिंता होती है और यदि किसी के ख़ून में ही बिज़नेस हो तो वह आपदा को कैसे अवसर में बदलता है यह हम इन दिनो लगातार देख रहे हैं इसलिए जब सत्ता पर बाज़ारवाद हावी होता है तो उसके पास जवाब भी होता है चाहे उससे कितनी भी असमानता बढ़े । इसलिए अमिता निरव कहती हैं-
आप कहें शिक्षा महंगी है, वे कहेंगे लोन है न!
आप कहेंगे इलाज महंगा है, वे कहेंगे इन्शुरन्स है न!
आप कहें पीने का साफ पानी नहीं है, वे कहेंगे आरओ है न!
आप कहें गर्मी बहुत बढ़ गयी है, वे कहेंगे एसी है न!
आप समस्या कहिए वे निदान में लाभ के मौके निकाल लेंगे। आपके पास जितनी समस्या हैं उनके पास उससे ज्यादा निदान और उनसे व्यापार के मौके।
दिल्ली में ऑक्सीजन पार्लर खुल गया है। यदि आपको लगता है कि आप ये सब अफ़्फोर्ड कर लेंगे तो आप ये नहीं जानते हैं कि बाजार की रेंज क्या है!
आप जहाँ सोचना बंद करते हैं बाज़ार वहां से सोचना शुरू करता है। याद ये भी रखें कि कानून के हाथ लंबे हो न हो बाज़ार के हाथ न सिर्फ लंबे होते हैं बल्कि बड़े भी होते हैं।
उनके हाथ में व्यवस्थाएं खिलौना होती है। व्यवस्था हमारी सुविधा है इसे व्यसन न बनने दें। व्यसन को ईश्वर होते देर नहीं लगती है।
शिक्षा और स्वास्थ्य को जिन लोगों ने नोबेल प्रोफेशन कहा उन्होंने बहुत दूर देखा फिर भी चुक गये।
शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाएं सामाजिक-आर्थिक सुधार का टूल है। उसका निजीकरण समाज में स्थायी असमानता, सामाजिक अन्याय और विसंगतियों को आमंत्रण है।
लेकिन सत्ता को इससे कोई मतलब नहीं , उसने तो बीस लाख करोड़ दे दिया , अब वह आपको नहीं मिला तो सरकार क्या करे ।
इस दौर में तकलीफ़ तो बढ़ी है इसे कौन समझे , कनुप्रिया ने अपनी तकलीफ़ बताती है -बीकानेर की घड़सी सर गाँव मे एक निजी स्कूल चलाती हूँ, मुझसे पहले ये स्कूल मम्मी सम्भाला करती थीं, स्कूल को लगभग 35-36 साल हो गए हैं यानि गाँव की दूसरी पीढ़ी यहाँ पढ़ रही है. ज़्यादातर लोग फैक्ट्रियों में, दुकानों में काम करते हैं, टैक्सी चलाते हैं, किसी किसी की ख़ुद की दुकान है कुछ लोग पशुपालन करते हैं, कोई कोई चतुर्थ श्रेणी सरकारी नौकरी में हैं. मध्यम से लेकर निम्न आय वर्ग तक के लोग हैं. स्कूल माध्यमिक तक हिंदी मीडियम है और ज़्यादातर बच्चे मुसलमान, दलित या obc वर्ग के हैं.
नोटबन्दी के बाद गाँव के कई लोग जो ठेके पर मजदूरी करते थे उनकी आय में कमी आई, ठेकेदार से समय पर पैसा नही मिलता यह शिकायत सुनने को मिलती रही, फिर लॉकडाउन के बाद दिक़्क़त और बढ़ी हुई है. कई लोग बच्चों की शिक्षा के लिये वज़ीफ़ा लेते हैं मगर बहुत से अभी तक नही भी लेते. सरकारी काम के अपने सर दर्द हैं, जितना समय घर का आदमी ये काम करने में लगाता है उतने में उसकी दिहाड़ी मारी जाती है, औरतें पढ़ी लिखी न होने के कारण ऐसे काम कर नही पातीं, और जो कर सकती हैं उनकी दिक़्क़त रहती है कि बच्चों को कहाँ छोड़ा जाए, कुछ लोग कई गुना पैसा किसी बिचौलिए को देकर आधार कार्ड तक बनवाते हैं. हमने अपनी तरफ़ से कोशिश करके भामाशाह कार्ड और विधवा पेंशन का एक शिविर लगाया था, मस्ज़िद और गाँव के सरकारी स्कूल में आधार कार्ड के शिविर लगे, डॉक्युमेंट कितनी बड़ी मुसीबत है ग़रीब अनपढ़ लोगों के लिए यह एन सी आर और सी ए ए के लिए डाक्यूमेंट्स की डिमांड करने वाले नही जानते.
उधर हमारी दिक़्क़त सबसे बड़ी यह है कि फ़ीस कैसे ली जाए, कुछ सालों में आसपास कई स्कूल खुल जाने से स्कूल की आय उतनी रही नही, बग़ल में सरकारी स्कूल है माध्यमिक तक, मस्ज़िद के पास एकाध स्कूल हैं और गलियों में छोटे छोटे बिना रजिस्ट्रेशन के स्कूल हैं.
गाँव के लोग जितना ख़र्च रीति रिवाज़ो और ब्याह शादी पर करते हैं उतना शिक्षा पर नहीं, लड़कियों का तो ब्याह ही करना है और लड़का कौनसा कलेक्टर बन जाएगा यह मानसिकता अगर है तो उसका लेना देना व्यवहारिक दुनिया से ज़्यादा है, फिर भी सरकारी स्कूल में पढ़ाई अच्छी नही होती तो निजी स्कूल में दाखिले की सोचते हैं. फ़ीस को लेकर साल भर खींचतान चलती रहती है, 2 महीने के लिये अगर बिहार से आया मज़दूर किसी त्यौहार या शादी पर गाँव गया तो सोचता है कि 2 महीने बच्चा स्कूल आया ही नही तो फ़ीस क्यों दें. स्कूल जितने दिन पढ़ाए उतने दिन की फ़ीस ले, ऐसे में मई जून की फ़ीस तक के लिये झखना पड़ता है.
कुछ बच्चे छुट्टियों में काम करके ख़ुद फ़ीस निकालते हैं और 2 बच्चो पर तीसरे बच्चे की मासिक फ़ीस माफ़ होने के गाँव के स्कूलों के पुराने नियम के चलते एक तिहाई बच्चे मासिक शुल्क से फ़्री होकर पढ़ते हैं.
ऐसे में लॉकडाउन में 4 महीने स्कूल बंद होने के कारण फ़ीस निकालनी कितनी मुश्किल होगी यह अभी से नज़र आ रहा है, जबकि उससे पहले की फीसें ही नही आईं हैं, स्कूल के स्टाफ़ की तनख़्वाह अप्रैल से देनी बाक़ी है, क्योंकि स्कूल प्रबंधन मेरे हाथ मे है तो मुख्य जिम्मेदारी मेरी बनती है कि सैलरी का भुगतान हो.
इस स्थिति में समझ नही आता कि अगर फ़ीस नही आई तो सैलरी कैसे दी जाएगी. सरकार की तरफ़ से कोई सहायता नही है. राजस्थान के मुख्यमंत्री ने मार्च से जून तक निजी स्कूलों द्वारा फ़ीस नही लिये जाने की अपील की थी, यदि उस अपील का अनुसरण करते हैं तो स्टाफ़ को तनख़्वाह कहाँ से दें और तनख़्वाह निकालते हैं तो पहले से ही घाटे में चल रही संस्था को कितने समय और चलाया जा सकता है समझ नही आता.
हम आनलाइन शिक्षा का बहाना भी कर नही सकते जिसके कारण बड़े स्कूल लगातार फ़ीस वसूल रहे हैं क्योंकि गाँव मे ये सम्भव नहीं, महज औपचारिकता करनी हो तो बात अलग. ऐसे में ऑनलाइन शिक्षा महज मध्यम आय वर्ग के लिये ही उपलब्ध होने वाली चीज़ है, इस तरह शिक्षा माध्यम से ग़रीब वर्ग का पढ़ना मुश्किल है.
अभी इसी पशोपेश में पड़े हैं, राहत ये है कि स्टाफ़ से ठीक सम्बन्ध होने के कारण उन्होंने अब तक अपनी माँग ज़ाहिर की है दबाव डालना शुरू नही किया है. मगर बिना सैलरी तो वो भी रहेंगे नहीं, ऐसे में बच्चों से शुल्क वसूलने के सिवा कोई उपाय दिखता नही, जो कि कितना उचित होगा कितना नही मैं अभी यह फ़ैसला करने की स्थिति में नही है ।
निधि शर्मा मध्यप्रदेश कहती हैं-मोदी सरकार कहती है कि पीएम केयर्स फंड से 50 हजार मेड इन इंडिया वेंटिलेटर खरीदे जाएंगे. इसके लिए 2000 करोड़ रुपये का आवंटन भी किया गया है.लेकिन आपको जानकर बेहद आश्चर्य होगा कि भारत के वेंटिलेटर्स निर्माता परेशान हैं क्योकि एक महीने से भी ज्यादा समय से वेंटिलेटर्स की सरकारी खरीद बंद है. एसोसिएशन ऑफ इंडियन मेडिकल डिवाइस इंडस्ट्री (AIMED) ने अपने पत्र में कहा है कि केंद्र और राज्यों की ओर से ऑर्डर नहीं मिल रहे हैं, निर्माताओं के पास अनबिका स्टॉक पड़ा है, मांग न होने की वजह से कीमतें गिर रही हैं, इसलिए उन्हें अब वेंटिलेटर्स के निर्यात की इजाज़त दी जानी चाहिए.
पत्र में आगे कहा गया है, 'वेंटिलेटर्स निर्माता पिछले एक महीने से उत्पादन रोक रहे हैं या धीमा कर रहे हैं. अनसोल्ड इन्वेंट्री और गिरती मांग इसकी बड़ी वजह है. पब्लिक हेल्थकेयर, स्वास्थ्य मंत्रालय और HLL अब आगे ऑर्डर नहीं दे रहे हैं.....HLL कोविड से संबंधित खरीद के लिए केंद्र की ओर से नामित एजेंसी है, एसोसिएशन का आरोप है कि HLL ने 15 मई को अंतिम टेंडर जारी किया था उसके बाद से कोई टेंडर जारी नहीं किया गया है
जब अभी तक खरीदी का टेंडर ही नहीं जारी किया गया तो सरकार किस बिना पर यह कह रही है कि 50 हजार मेड इन इंडिया वेंटिलेटर खरीद रहे है जबकि कुछ दिन पहले ही इन 50 हजार में से 17 हजार वेंटिलेटर्स जून के अंत तक ही राज्यों को देने की बात की गयी थी
अब आप ही बताइये इस मोदी सरकार को क्या कहे ?

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