लाकडाउन -22
सत्ता की अपनी रईसी है, इसलिए उसकी अपनी परिभाषा हैं। वह वही परिभाषा प्रस्तुत करती है जो उसके लिए सुविधानुसार हो । शायद यही वजह है कि जब भारत कोरोना के बढ़ते मामले के चलते रुस को पीछे छोड़ तीसरे नम्बर पर आया तो उसने इस पर नई परिभाषा लाद दी कि जनसंख्या के औसत में हम अब भी कई देशों से पीछे है। यानी सरकार अब भी अपनी ग़लती मानने को तैयार नहीं है कि उसकी लगातार ग़लती और चूक की वजह से कोरोना इस तेज़ी से फैला है। जबकि सच तो यही है कि कोरोना के डर से होली नहीं मनाने वाली सत्ता ने होली के पंद्रह दिन बाद तक भी तब तक कुछ नहीं किया जब तक मध्यप्रदेश में सरकार नहीं बन गई। और इस लोभ ने ही देश में कोरोना को विस्तार देने मे मदद की । लेकिन जब आपके पास नफ़रत का बीज हो तो सत्ता की रईसी बरक़रार रखने के हथियार आ ही जाते हैं। अभी भी सरकार कोरोना की बदनामी से बचने राष्ट्रवाद और हिंदुवाद का हथियार ही इस्तेमाल कर रही है और लोग पेट की भूख के चलते बेख़ौफ़ हो गए हैं जबकि हालत दिनो दिन ख़राब होते जा रहे हैं ।
छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में रोज पचास से ऊपर केस आ रहे हैं और नौकरी भी तेज़ी से जा रही है। अब तो विदेशों से भी बड़ी संख्या में नौकरी जाने की ख़बर है, ऐसे में बदहाल आर्थिक स्थिति को नहीं सम्भाला गया तो मौत के आँकड़े बढ़ने से कोई नहीं रोक पाएगा । तिल तिल कर मरते लोग आत्महत्या जैसे क़दम उठाने लगे हैं। दिल्ली में दैनिक भास्कर के पत्रकार तरुण सिसोदिया ने भी आत्महत्या कर ली । छत्तीसगढ़ में भी सौ से अधिक पत्रकारों की नौकरी जा चुकी है।
एनडीटीवी के पत्रकार अनुराग ने तरुण सिसोदिया की आत्महत्या पर लिखा..
अलविदा तरूण ...
मैं तरूण को नहीं जानता था, आप भी नहीं जानते होंगे ...
लेकिन तरूण लड़ा, इस दौर में जब आप घर पर बैठे होंगे ...
कोरोना से संक्रमित हुआ, उस दौर में भी अस्पताल की व्यवस्था पर सवाल उठाए...
सुना है नौकरी पर भी संकट था ...
नौकरी से हारा, बीमारी से या कुछ और नहीं पता...
मेरे जैसे कई साथियों की तरह ... जब आप पत्रकारिता के नाम पर विचारधारा लाद रहे थे तब भी तरूण या हमारा कोई साथी लड़ रहा था ...
तरूण ... ना अर्णब था, ना विनोद दुआ, ना तरूण तेजपाल ...
आपकी बजबजाती, सड़ी कथित वैचारिकता का भार ढोता नहीं होगा ...
अब वो नहीं है ... लेकिन प्रेस काउंसिल है, एडिटर्स गिल्ड है, और जाने क्या क्या...
लेकिन वो नहीं बोलेंगे ... क्योंकि तरूण को आप नहीं जानते, मैं नहीं जानता ...
देश भर के प्रेस क्लब हैं ... तमाम मरी हुई यूनियनें हैं ...
लेकिन कोई नहीं बोलेगा .... तुम थे क्या हिन्दी पट्टी के पत्रकार ...
कोई डिजायनर मंच पर तुम दिखे नहीं होगे ... एक पक्ष लेकर तुम अड़े नहीं होगे जो किसी एक की आंखों का तारा बनते ...
हम भी ज़िंदा लाश हैं ...
अलविदा तरूण .... मेरे भाई और कभी मिलेंगे दोस्त ...
इस तरह का हाल सत्ता को नहीं दिखेगा , लेकिन लोगों में ग़ुस्सा है और वे सोशल साईट में विरोध भी दर्ज कर रहे हैं।राहुल सेन ने अपनी बात कूछ इस तरह से कही ...
हमारे प्रधानमंत्री मोदी जी ने कोरोना को रोकने के लिए 80 दिनों का लाॅकडाउन किया जो एक बहुत ही अच्छा कदम था।
जनता को लगा था कि हम 80 दिन घर में रहेंगे तो फिर कोरोना जमीनी स्तर पर कम हो जाएगा लेकिन अफसोस हुआ उसका उल्टा क्योकि 80 दिनो में सरकार ने कोरोना के खिलाफ युद्ध स्तर पर कोई काम नही किया। जनता इतनी भोली जिसने मोदी जी के कहने पर थाली बजा डाली और दीए भी जला दिए।
अब शुरू होता है असली मुद्दा वो है कोरोना को फैलाने का ठीकरा किसके सिर फोड़ा जाए?
पहला नंबर आया जमाती का, जिस पर सरकार ओर मीडिया ने बहुत आक्रामक रूख अपनाया, जब जमाती का मुद्दा धूल में धुमिल हो गया, फिर दूसरा नंबर आया मजदूरो और शराबियो का, उससे भी दाल नही गली तो अब क्या करे?
सरकार ने सोचा सबकुछ खोल कर जनता को ही आत्मनिर्भर बना देते हैं और सारा ठीकरा जनता पर ही फोड़ देंगे और अब ऐसा ही हो रहा है।
जनता को कोरोना के साथ ही आत्मनिर्भर बना कर मरने के लिए छोड़ना था तो 80 दिन के लाॅकडाउन की क्या आवश्यकता थी?
न किसी की नौकरी जाती और न ही अर्थव्यवस्था का इतना बंटाधार होता जो कोरोना से पहले धीमी गति से बंटाधार हो रहा था।
चौकीदार की गलत नीतियों को आज देश दुबारा सामना कर रहा है जहां हमारे मजदूर भाई बहनो को परेशान किया और कुछ मजदूरो की मृत्यु भी हुई उसका जिम्मेदार कौन?
नोटबंदी के दौरान भी जनता को परेशान किया और न जाने कितने लोगो ने अपने प्राण गवाह, उसकी जिम्मेदारी कौन लेगा?
GST ला कर व्यवसाय का भी बंटाधार किया उसकी जिम्मेदारी कौन लेगा?
प्रधानमंत्री आप सवोर्च्च पद पर बैठे हो, इस पद पर बैठकर समझदारी के साथ फैसले लेने पड़ते हैं, न कि नर्सरी के बच्चे की तरह जो बिना कुछ सोचे समझे आकर रात 8 बजे उंगपटांग घोषणा करे।
समझ के साथ फैसले ले तो बेहतर है।

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