लॉकडाउन-35
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कोरोना तांडव करने लगा था , और केंद्र की सरकार क्या कर रही है कोई नहीं जानता। मध्यम वर्ग और छोटे व्यापारियों की हालत बदतर होने लगी थी , कहीं कहीं से आत्महत्या की ख़बरें भी आने लगी , लेकिन एक राहुल गांधी को छोड़ समूचा विपक्ष सन्नाटे में था । केंद्रिय सत्ता के ख़ौफ़ में विपक्ष की चुप्पी हैरान कर देने वाला था । लगातार बढ़ते मरीज़ से राज्य सरकारें ज़रूर चिंतित थी और अपने स्तर पर लड़ाई लड़ भी रही थी लेकिन जिस सत्ता ने छः साल में एक अस्पताल तक नहीं खोला था वह अब भी अपनी रईसी बनाए रखने आपदा को अवसर में बदल रही थी ।
भारत में कोरोना वायरस (Coronavirus in India) से संक्रमितों की संख्या 11 लाख को पार कर गई है। देश में पिछले तीन दिनों से लगातार 34 हजार से अधिक नए मामले सामने आ रहे हैं। इस बीच इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (IMA) के बयान ने देश की चिंता बढ़ा दी है। आईएमए का कहना है कि भारत में कोरोना का कम्युनिटी स्प्रेड (Community Spread in India) शुरू हो चुका है, जिसके मतलब है कि आगे हालात और ज्यादा खराब हो सकते हैं।
सुधीन्द्र मोहन शर्मा ने जो प्रतिक्रिया लिखी है वह भी पढ़ा जा सकता है -सरकारी वायरस और खाकी वैक्सीन
कोविड 19 ने जब चीन पर आक्रमण किया तो पूर्व में हुए वायरस आक्रमण से निपटने के पिछले अनुभवों का चीन ने पूरा फायदा उठाया. चीन के दक्षिण पूर्वी प्रांत ग्वांगडोंग में सार्स 2002 का आक्रमण हुआ था.
1997 में हांगकांग में बर्ड फ्लू दिखाई दिया जिसके कारण मौतें तो ज्यादा नही हुईं, केवल 6, लेकिन ये 2003 में फिर आया और दक्षिण पूर्वी एशिया में इसने 282 जाने ले लीं.
1968 में हांगकांग फ्लू फैला जिसने उस समय के हांगकांग के 15 प्रतिशत अर्थात लगभग 5 लाख लोगों को संक्रमित किया. इसकी वैक्सीन विकसित हो जाने के बाद भी अभी तक इससे 10 लाख मौतें हो चुकीं हैं.
1957 की फरवरी में चीन के दक्षिण पश्चिमी प्रांत गुई झोउ में एशियन फ्लू फैला जो विश्व मे अब तक 11 लाख जान ले चुका है.
कोविड 19 अब तक पूरे विश्व में 6 लाख जान ले चुका है. लेकिन चीन से शुरू होने वाले इस संक्रमण से चीन में कुल 4653 मौतें हुईं हैं. भारत मे अभी तक , 20 जुलाई तक इससे 5 गुना, लगभग 27497 मौतें और अमेरिका में इससे 30 गुना, 143512 मौतें हो चुकीं हैं.
आखिर चीन ने ऐसा क्या किया जो उसकी मानव जीवन की क्षति बहुत कम हुई है.
चीन ने हर प्रांत, हर शहर की जनसंख्या और वायरस के फैलाव के अनुसार अलग अलग रणनीति बनाई. पूरे देश को या राज्य को लॉक डाउन में रखने के बजाय हॉट स्पॉट बिल्कुल शुरुआती दौर में ही चिन्हित किये गए और सोशल डिस्टेंसिन्ग , क्वारंटाइन , और हाथों की और श्वांस लेने से संबंधित साफ सफाई में बेहद गंभीरता से सावधानी रखी गई.
भारत मे हमने क्या किया ???
मैंने कोरोना की शुरुआत में हुए लॉक डाउन के समय लिखा था कि "आपत्तिकाल में व्यक्ति सबसे पहले वो करता है जिसमे वो पारंगत होता है"
हम पारंगत हैं कानून व्यवस्था के मुद्दों से निपटने में.
तो हमने शब्द तो ले लिये आधुनिक शब्दावली से "सोशल डिस्टेंसिन्ग " क्वारंटाइन" और हैंड हाइजीन, मास्क, इत्यादि लेकिन कोरोना से लड़ने में हमारा मुख्य हथियार था लाठी. याद करिये जब लॉक डाउन के समय लोगों के बीच आपस मे होने वाली चर्चा और चुटकुले भी इस पर होते थे कि घर के बाहर निकलने पर पुलिस की पिटाई कैसे होती है. उधर मीडिया जिसे अपने माध्यम के जिस बहुमूल्य समय का उपयोग लोगों को शिक्षित करने में करना था, उस समय का उपयोग मरकज, जमाती इत्यादि में कर रहा था.
क्योंकि हम इसीमे निपुण हैं, पारंगत हैं. इस चिकित्सकीय आपदा से निपटने के लिये हमनेदंगों से निपटने वाली मानसिकता से काम लिया. इस मेडिकल इमरजेंसी में जहां हमारे सफेद कोट वाले डॉक्टर्स को नेतृत्व करना था, वहां खाकी वर्दीधारी पुलिस और प्रशासनिक अधिकारी कोरोना के खिलाफ "लड़ाई" का नेतृत्व कर रहे थे. अब ये लड़ाई और कोरोना योद्धा जैसे शब्द भी मुझे बहुत बेचैन कर देते थे. क्योंकि इससे किसी मरीज के इलाज की बजाय , उसकी सार संभाल के बजाय हम उसे लड़ाई का हिस्सा बना देते हैं. क्योंकि कोरोना तो अदृश्य है, उसका तो कोई भौतिक अस्तित्व आपको दिखता नही, तो जिस व्यक्ति के शरीर मे कोरोना है , आपके सब कॉन्शस में वह शत्रु की तरह प्रतीत होने लगता है. तो खाकी पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों की लड़ाई कोरोना नामक बीमारी के बजाय (उनके पुराने अनुभवों के आधार पर, जिसमे उन्होंने दंगों पर नियंत्रण पाया है) उन लिगन पर शिफ्ट हो गई जो कोरोना के प्रतीक थे..
- कोरोना पॉजिटिव मरीज
- आम व्यक्ति जो कोरोना पॉजिटिव तो नही है पर जो दंगे अर्थात कोरोना भड़काने का सम्भावित एजेंट है.
- मरकज / जमाती जिसे इस सब तमाशे में एक और "दुश्मन" के तौर पर चिन्हित कर लिया गया था, कुछ मीडिया की बेवकूफी से और कुछ खाकी और प्रशासनिक अधिकारियों के पूर्व अनुभवों के आधार पर.
यहां नोट करिये कि डॉक्टर्स, चिकित्सा स्टाफ, इत्यादि लड़ाई के नायक नही बल्कि सहायकों की भूमिका में नजर आते हैं. हमारे देश की प्रशासकीय व्यवस्था में तकनीकी विशेषज्ञों के मुकाबले प्रशासनिक और खाकी वर्दी को ही महत्व देने की परंपरा हमने इस चिकित्सकीय आपदा में भी जारी रखी. प्रशासनिक अधिकारियों ने दूध, सब्जी, राशन वितरण तक पर अपनी छाप छोड़ी क्योंकि दवाइयां , या परीक्षण करने का तो कुछ था नही.
कुछ था तो वे थे आंकड़े, निजी और सरकारी हॉस्पिटल्स , उनके डॉक्टर्स और उनका स्टाफ.
तो वरिष्ठ नेतृत्व इनके लिए ताली थाली दिया बाती करता रहा और स्थानीय प्रशासनिक अधिकारी इन्हें "नियंत्रित" करते रहे.
इनके लिए सुविधाएं , साजो सामान, परीक्षण किट की व्यवस्था बस ऊपरी ऊपरी प्राथमिकताओं में दिखाई देती थी.
इधर लॉक डाउन जैसे भारी भरकम शब्द को सीखने के बाद इसके उपयोग करने में भी हम पश्चिमी देशों की नकल करने के लिए, लूडो, कुकिंग, कैरम कार्ड्स इत्यादि का उपयोग करने में व्यस्त.
इस सबमे कोरोना नामक बीमारी की चिकित्सा, या उसकी रोकथाम की गंभीर कोशिश कहीं दिखाई दी आपको ?
तो हमने कोरोना को भी एक दंगा मान लिया, कोरोना प्रभावित क्षेत्रों को दंगाग्रस्त क्षेत्र, जिसमे लोगों के आने जानेपर प्रतिबंध लगाना, और दूध सब्जी की सप्लाई काटना, बहाल करना, पास जारी करना, अंतरराज्यीय यात्राओं की अनुमतियाँ देना, बस यही किया.
कहीं कहीं कोरोना का मुकाबला हमने प्राकृतिक आपदा की तरह भी किया और "फंसे हुए" लोगों को "रेस्क्यू" करने की भी कवायदें की गईं, जिनमे कोई बुराई नही थी लेकिन स्थानीय स्तर पर उनकी दिक्कतों का हल ढूंढने के बजायउन्हें लंबी दूरियां तय करके लाने में कितना संक्रमण को बढ़ावा दिया गया वह अफसोसनाक है.
प्रवासी व्यक्तियों को (अपने ही देश मे एक इलाके से दूसरे में जाने पर प्रवासी कहलाना भारत मे ही संभव है) आने जाने में किसी भी तरह की सुविधा शासन द्वारा न दे पाना और जो दिया जाना, वह हमारे तीर्थ यात्राओं के प्रबंधन की तरह था , लंबी कावड़ यात्राओं, और हज और जियारत की तरह ही हमारे विभिन्न शहरों की सामाजिक संस्थाओं, और सामाजिक , राजनीतिक हस्तियों ने, फिल्मी सेलिब्रिटियों ने , लंगर लगा दिए यात्राओं के इंतजाम करा दिए, किसीने चप्पलें बांटीं तो किसीने हवाई जहाज के टिकिट तक दे दिए, और ये बात मैं पूरी गंभीरता से कह रहा हूँ, इन व्यवस्थाओं को देख कर, और उन यात्रियों, उनके परिवारों, बच्चों को देख कर कई कई बार रुलाई आ जाती थी. कभी तकलीफें देख कर तो कभी तकलीफों के निदान करने वाले देवदूतों की शक्लें और उनके काम देख कर. क्या आप विश्वास करेंगे कि एक मोटर साइकिल मैकेनिक ने इस लॉक डाउन के समय मे जब सब बेरोजगार हो जाने और अपना काम धंधा कम हो जाने की वजह से हो रही आर्थिक तंगी का रोना रो रहे थे, ऐसे समय मे भी, उस मेकेनिक ने हाईवे ओर आने जाने वाली सायकिलों और दोपहिया वाहनों की मुफ्त, जी , निशुल्क मरम्मत की , पूरे डेढ़ महीने तक.
आर्थिक पैकेजों की बात केवल टीवी में सुनने वाले माध्यम वर्ग ने अपना दिल बड़ा रखते हुए अपने यहां काम करने वाली सहायिकाओं को, चौकीदारों को, बिना काम और बुलाये दो महीने की तनखाह दे दी, जबकि उस मध्यमवर्गीय घर की खुद की आमदनी ही आधी भी नही रह गई होगी. ये सब हमारे भारत की जनता ने किया, क्योंकि हम जो जानते थे वो हमने किया.
लेकिन इस सबके बीच भी कोरोना से बचाव , को लेकर सरकारी प्रयास आपको कहां दिख रहे हैं ?
सिर्फ लॉक डाउन लगाने, कर्फ्यू लगाने, प्रतिबंध जारी करने तक, बस
हमारी सरकार तो उन निजी अस्पतालों तक से काम नही करा पाईं जिन्हें "समाज हित" मे 1 रु में दसियों एकड़ जमीन दे दी गई थी , इस प्रत्याशा में कि वक्त आने पर ये समाज की सार संभाल करेंगे. सार संभाल तो दूर, कुछ अस्पतालों ने अपने यहां ताले लगा दिए, जिन्होंने ताले नही लगाए उन्होंने कोविड पैकेज जारी कर दिए.
तो चिकित्सा, प्रशासन, आर्थिक, सामाजिक किस मोर्चे पर आपको कोरोना से असली मुकाबला दिखाई दिया ?
इसका समाधान बड़ा आसान है . भारतीय आम आदमी को सेल्फ गिल्ट में फंसा दो. बस जिम्मेदारी तय हो गई हमारी सबकी, और सब कहने लगेंगे ये तो हम लोग ही है ना, हमही लोग सहयोग नही कर रहे. तो भैया आप बता दो, सरकार ने क्या किया जिसके विरुद्ध हम गए हों ? सोशल डिस्टेंसिन्ग ? मास्क? तो भैया बाजारों की व्यवस्थाएं , बैंकों की व्यवस्थाएं ठीक कर दो, हम अपने घर मे ही बैठेंगे.
आपने तो बिना बाजार की तैयारी के लॉक डाउन खोल दिया. बाद में सारे प्रयोग हो रहे हैं. ऑड इवन, लेफ्ट राइट, कौनसी दुकाने कब खुलेंगी, कितने कर्मचारी होंगे, दुकान के बाहर खड़े लोगों केलिए जुर्माना भी दुकानदारों से वसूल कर लिया , मतलब दुकानदार सड़क की भीड़ के लिए भी जिम्मेदार हो गया. क्राउड कंट्रोल भी वही कर ले. कल से ट्रैफिक सिग्नल पर भी उसे खड़ा कर देना, और क्या सहयोग चाहिए ?
सामान्य सांख्यिकीय समझ भी बता देगी कि किसी बाजार में 8 घंटे में 1200 लीग आते हैं तो प्रति घंटे 150 लोग आएंगे. उसी बाजार को आप 8 घंटे की बजाय 4 घंटे का कर दीजिए, प्रति घंटा आने वालों की संख्या 300 हो जाएगी. भीड़ बढ़ेगी या घटेगी , खुद ही देखिये. सोशल डिस्टेंसिन्ग का पालन कैसे होगा जब शहर के पास के गांवों और कस्बों के लिए सार्वजनिक परिवहन नही होंगे. मजबूरी में एक ही दोपहिया पर तीन तीन लोग गांव से शहर आएंगे. पर हम बसें या मिनी बसें नही चलाएंगे क्योंकि हमें लगता है कोरोना नही दंगा है जो बसें चलाने से फैल जाएगा. हमे आदत वही है ना, क़ानून व्यवास्था संभालने की, और वही तो हम कर रहे हैं.
और आज, आज जब 40,000 से भी अधिक केसेस प्रतिदिन आ रहे हैं, और कुल मरीजों की संख्या 11 लाख के करीब पहुंचने वाली है, सरकार ही नही, हमारे अपने समाज के कई लोग कह रहे हैं"लोग मान ही नही रहे, कोआपरेट ही नही कर रहे , इसीलिए कोरोना फैल रहा है, इनको तो पुलिस के डंडे ही चाहिए" मानो पुलिस का डंडा न हो, कोरोना की वैक्सीन हो, जिसका रंग खाकी है.
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