लॉकडाउन-36
34
केंद्र का अनलॉक कई राज्यों को भारी पड़ने लगा था और कोरोना के घातक रफ़्तार को देखते हुए कई राज्यों में लॉकडाउन शुरू हो गया था । लेकिन केंद्र सरकार अब भी अपने रईसी के बाहर नहीं निकल रही थी । उसे न ख़राब होती अर्थव्यवस्था की चिंता थी और न ही मौत के बढ़ते आँकड़ो का ही परवाह था। बिगड़ते हालात से आम लोग चिंतित थे और वे ही अपील जारी कर रहे थे कि ज़रूरत हो तो ही घर से निकलो।
भारत में कोरोना से संक्रमितों की संख्या 11.50 लाख को पार कर गई है। देश में पिछले तीन दिनों से लगातार 34 हजार से अधिक नए मामले सामने आ रहे हैं। इस बीच इंडियन मेडिकल एसोसिएशन के बयान ने देश की चिंता बढ़ा दी है। आईएमए का कहना है कि भारत में कोरोना शुरू हो चुका है, जिसके मतलब है कि आगे हालात और ज्यादा खराब हो सकते हैं।
एएनआई से बात करते हुए आईएमए (हॉस्पिटल बोर्ड ऑफ इंडिया) के अध्यक्ष डॉ वीके मोंगा ने कहा, 'यह अब घातक रफ्तार से बढ़ रहा है। हर दिन मामलों की संख्या लगभग 30,000 से अधिक आ रही है। यह देश के लिए वास्तव में एक खराब स्थिति है। कोरोना वायरस अब ग्रामीण क्षेत्रों में फैल रहा है, जो की एक बुरा संकेत है। इससे पता चलता है कि देश में कोरोना का कम्यूनिटी स्प्रेड शुरू हो चुका है।
केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, बीचे 24 घंटों में कोरोना वायरस के 38,902 नए मामले सामने आए हैं, जबकि 543 लोगों की मौत हुई है। देश में कोरोना वायरस के कुल मामलों की संख्या बढ़कर 11 लाख 77 हजार 618 हो गई है। इसमें से 3 लाख 73 हजार 379 एक्टिव मामले हैं, जबकि 6 लाख 77 हजार 423 लोग स्वस्थ हो चुके हैं। देश में अब तक कुल 26,816 लोगों की जान जा चुकी है।
डॉ. मोंगा ने कहा कि कोरोना महामारी के मामले कस्बों और गांवों तक पहुंच गए हैं, जहां स्थिति को नियंत्रित करना बहुत मुश्किल होगा। दिल्ली में हम इसे कंट्रोल कर रहे हैं, लेकिन महाराष्ट्र, कर्नाटक, केरल, गोवा के अंदरूनी इलाकों का क्या होगा जो नए हॉटस्पॉट बन सकते हैं। उन्होंने कहा कि राज्य सरकारों को पूरी सावधानी बरतनी चाहिए और स्थिति को नियंत्रित करने के लिए केंद्र सरकार की मदद लेनी चाहिए।
वहीं, इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (ICMR) ने कहा कि 18 जुलाई तक कोरोना वायरस के लिए 1 करोड़ 37 लाख 91 हजार 869 नमूनों का परीक्षण किया जा चुका है। इनमे 3, लाख 58 हजार 127 नमूनों का शनिवार को परीक्षण किया गया। आईसीएमआर नियमित रूप से परीक्षण को तेजी से बढ़ा रहा है। वर्तमान में 885 सरकारी प्रयोगशालाओं और 368 निजी प्रयोगशालाओँ में कोरोना वायरस का परीक्षण किया जा रहा है।
मोंगा ने कहा कि यह एक वायरल बीमारी है जो बहुत तेजी से फैलती है। इस बीमारी को रोकने के लिए केवल दो विकल्प हैं। पहला यह कि 70 फीसदी आबादी इस बीमारी से संक्रमित हो और उनके अंदर इससे लड़ने की इम्यूनिटी विकसित हो जाए। दूसरे तरीका है कि इसकी वैक्सीन तैयार हो जाए।
इधर देशबंधु अख़बार में लिखे अपने लेख में आईआईटी मुंबई में प्राध्यापक रहे प्रो. राम पुनियानी ने कहा कि कोविड 19 ने जहां पूरी दुनिया में कहर बरपा कर रखा है वहीं कई देशों के शासक इस महामारी के बहाने अपने-अपने संकीर्ण लक्ष्य साधने में लगे हैं। कई देशों में अलग-अलग तरीकों से प्रजातांत्रिक अधिकारों को सीमित किया जा रहा है, जिसके विरोध में अमेरिका में एक अभियान शुरू हुआ है जो उस 'दमघोंटू' सांस्कृतिक माहौल का विरोध कर रहा जिसके चलते वर्चस्वशाली विचारधारा से सहमत होने पर जोर दिया जा रहा है, स्वतंत्र बहस पर पहरे लगाये जा रहे हैं और मत विभिन्नता के प्रति सहिष्णुता को कमजोर किया जा रहा है। यह सब भारत में भी हो रहा है। सांप्रदायिक शक्तियों ने पहले कोरोना के प्रसार के लिए मुसलमानों को दोषी ठहराया और अब पाठ्यक्रम को 'हल्का' करने के नाम पर भारतीय राष्ट्रवाद की मूल अवधारणाओं से सम्बन्धित अध्यायों को पाठ्यपुस्तकों से हटाया जा रहा है।
ऐसा बताया जा रहा है कि संघवाद, नागरिकता, राष्ट्रीयता, धर्मनिरपेक्षता, मानवाधिकार, विधिक सहायता और स्थानीय स्वशासन संस्थाओं से सम्बंधित सामग्री पुस्तकों से हटाई जा रही है। सांप्रदायिक शक्तियों के लिए शिक्षा का क्षेत्र हमेशा से बहुत महत्वपूर्ण रहा है। वे लगातार यह दावा करतीं आ रहीं हैं कि पाठ्यक्रमों का 'भारतीयकरण' किया जाना चाहिए क्योंकि उनके निर्माण में वामपंथियों की भूमिका के चलते उन पर मैकाले, मार्क्स और मोहम्मद का प्रभाव है। पाठ्यक्रमों के भारतीयकरण का पहला प्रयास सन् 1998 में किया गया था। तत्कालीन एनडीए सरकार में मानव संसाधन विकास मंत्री मुरली मनोहर जोशी ने पाठ्यक्रमों में बदलाव किये थे, जिन्हें 'शिक्षा के भगवाकरण' का नाम दिया गया था। उस समय दक्षिणपंथी और सांप्रदायिक ताकतों का मुख्य फोकस सामाजिक विज्ञानों पर था। पाठ्यक्रमों में पौरोहित्य और ज्योतिष जैसे विषय और किताबों में जाति व्यवस्था और हिटलर मार्का राष्ट्रवाद का बचाव करने वाले अध्याय जोड़े गए थे।
सन् 2004 में एनडीए सरकार के सत्ता से बाहर होने के बाद आई यूपीए सरकार ने इनमें से कुछ विकृतियों को ठीक करने का प्रयास किया। सन् 2014 के बाद से, शिक्षा के क्षेत्र में काम करने वाले आरएसएस के अनुषांगिक संगठन अति सक्रिय हैं। उनकी कोशिश है कि मानव संसाधन विकास मंत्रालय के सहयोग से, पाठ्यक्रमों में हिन्दू राष्ट्रवादी एजेंडे के अनुरूप परिवर्तन किये जाएं। संघ परिवार का एक सदस्य है 'शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास'। वह चाहता है कि किताबों में से अंग्रेजी और उर्दू के शब्द हटा दिए जाएं। उसकी यह भी मांग है कि राष्ट्रवाद पर रवीन्द्रनाथ टैगोर के विचार, एमएफ हुसैन की आत्मकथा के अंश और मुस्लिम राजाओं की उदारता के उदाहरणों सहित वे सभी हिस्से किताबों से बाहर कर दिए जाएं जिनमें भाजपा को हिन्दू पार्टी बताया गया है, डॉ मनमोहन सिंह द्वारा सिक्ख-विरोधी दंगों के लिए माफी मांगने का संदर्भ दिया गया है और गुजरात के 2002 के दंगों में हुए भारी खून-खराबे की चर्चा की गई है। वे इसे पाठ्यक्रम का 'भारतीयकरण' करना मानते हैं।
संघ का जाल बहुत बड़ा है। उसके एक प्रचारक दीनानाथ बत्रा ने 'शिक्षा बचाओ अभियान समिति' का गठन किया है जो विभिन्न प्रकाशकों पर दबाव डालती रही है कि वे उन किताबों का प्रकाशन बंद कर दें जो संघ की विचारधारा से मेल नहीं खाते।
हम सबको याद है कि इन्हीं शक्तियों ने वेंडी डोनिगेर की पुस्तक 'द हिन्दू' पर प्रतिबन्ध लगाने की मांग की थी क्योंकि वह प्राचीन भारत को दलितों और स्त्रियों के सरोकारों के परिप्रेक्ष्य से देखती है। बत्रा ने स्कूलों के लिए नौ किताबों का एक सेट प्रकाशित किया है, जिनमें भारत के इतिहास को आरएसएस के चश्मे से देखा गया है और समाज विज्ञानों की संघी समझ को प्रस्तुत किया गया है। इन पुस्तकों का गुजराती में अनुवाद हो चुका है और राज्य के स्कूलों में इन किताबों की हजारों प्रतियां खपा दी गईं हैं।
भारतीय राष्ट्रवाद, धर्मनिरपेक्षता और मानवाधिकारों से सम्बंधित अध्यायों को पाठ्यक्रमों से हटाने का हालिया निर्णय इसी दिशा में एक और कदम है। ये वे शब्द हैं जो हिन्दू राष्ट्रवादियों को बेचैन और असहज कर देते हैं। वे लम्बे समय से धर्मनिरपेक्षता को बदनाम करते आये हैं। सन् 2015 के गणतंत्र दिवस की पूर्वसंध्या पर सरकार की ओर से जारी विज्ञापन में संविधान की जो उद्देशियका प्रकाशित की गई थी उसमें से 'धर्मनिरपेक्ष' शब्द गायब था। पिछले कुछ दशकों में राममंदिर आन्दोलन के जोर पकड़ने के समांतर भारतीय स्वाधीनता संग्राम के धर्मनिरपेक्ष चरित्र और संविधान के धर्मनिरपेक्ष मूल्यों को नकारने के सतत प्रयास किये जा रहे हैं। कई आरएसएस चिन्तक और भाजपा नेता इसी कारण संविधान में परिवर्तन किये जाने की मांग करते रहे हैं।
धर्मनिरपेक्षता, भारतीय राष्ट्रवाद की संकल्पना का अविभाज्य हिस्सा है। धार्मिक और सांप्रदायिक राष्ट्रवाद के हामी कई छात्र नेताओं पर हमले करते रहे हैं। भारतीय राष्ट्रवाद के अध्ययन से हमें पता चलता है कि हमारा स्वाधीनता आन्दोलन कितना विविधवर्णी और बहुवादी था। भारत का स्वाधीनता संग्राम, भारतीय राष्ट्रवाद के मूल्यों में रचा-बसा था और यही कारण है कि हिन्दू और मुस्लिम साम्प्रदायवादी हमारे औपनिवेशिक आकाओं के विरुद्ध इस महासंग्राम से दूर रहे। इसी महासंग्राम से विविधवर्णी भारत उपजा।
चूंकि हमारे देश में सभी नागरिकों को समान अधिकार प्राप्त हैं इसलिए नागरिकता से सम्बंधित अध्यायों को हटाने की बात कही जा रही है। संघवाद, भारत के राजनैतिक और प्रशासनिक ढांचे का आधार है। जैसे-जैसे तानाशाही प्रवृत्तियां बढ़ती जाएंगी वैसे-वैसे संघवाद कमजोर होता जायेगा। और इसलिए, संघवाद के बारे में सामग्री को पाठ्यपुस्तकों से हटाया जा रहा है। सत्ता का विकेन्द्रीकरण, प्रजातंत्र की मूल आत्मा है। सच्चा प्रजातंत्र वही है जिसमें सत्ता आम नागरिकों के हाथों तक पहुंचे। स्थानीय स्वशासन संस्थाएं यही करतीं हैं। शक्तियों और अधिकारों को केंद्र और राज्य सरकारों, शहरी स्वशासन संस्थाओं और पंचायतों के बीच बांटा गया है। संघवाद और स्थानीय स्वशासन संस्थाओं से सम्बंधित अध्यायों को हटाने का निर्णय, शासक दल की सोच और विचारधारा को प्रतिबिंबित करता है।
हम प्रस्तावित परिवर्तनों के सभी निहितार्थों पर चर्चा नहीं कर रहे हैं परन्तु मानवाधिकारों से सम्बंधित अध्याय हटाने के निर्णय के एक पहलू पर नजर डालना जरूरी है। मानवाधिकार और मानवीय गरिमा एक-दूसरे से जुड़े हैं। भारत ने संयुक्त राष्ट्रसंघ के कई मानवाधिकार घोषणापत्रों पर हस्ताक्षर किये हैं। अब जो संकेत मिल रहे हैं उनसे ऐसा लगता है कि आगे चल कर अधिकार केवल कुछ कुलीनों के लिए होंगे और विशाल वंचित वर्ग को केवल उसके कर्तव्यों पर ध्यान देने के लिए कहा जायेगा।
कुल मिलाकर, कोरोना की इस त्रासदी के बहाने सरकार शिक्षा के क्षेत्र में शासक दल का एजेंडा आगे बढ़ाने पर आमादा दिखती है। पाठ्यक्रमों के उन हिस्सों को हटाया जा रहा है जो शासक दल को भाते नहीं हैं। इसके अलावा, सरकार पाठ्यक्रमों का 'भारतीयकरण' करने की संघ परिवार की मांग को भी तवज्जो दे रही है। अगर सब कुछ ऐसा ही चलता रहा है तो हो सकता है कि हमारे बच्चे अब यह पढ़ें कि रामायण और महाभारत में वर्णित घटनाक्रम सचमुच घटा था और प्राचीन भारत में स्टेमसेल तकनीकी से लेकर प्लास्टिक सर्जरी तक सब कुछ था। और हां, यह भी कि हमारे पूर्वज हवाईजहाजों में सैर करते थे और आणविक हथियारों का प्रयोग करते थे।
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें