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लॉकडाउन -15

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13 यदि सरकार वास्तव में कोरोना संकट से मुक्ति चाहती तो वह राज्यों के भरोसे सब कुछ नहीं छोड़ती, लेकिन उसे तो अपनी राजनीति साधनी है, इसलिए उसने संकट के इस दौर में वह सब कुछ किया , जिससे उसकी राजनीति सधतीं है। लेकिन वास्तव में केंद्रीय सत्ता में बैठे लोग राजनीति भी नहीं कर रहे थे , वे अपनी महत्वकांक्ष की उस मृगतृष्णा के पीछे दौड़ रहे हैं, जिसकी परिणिति केवल थक कर गिर जाने में होती है, वे यह भी नहीं समझ पा रहे थे कि 130 करोड़ के देश में जो विविधता भरा जीवन है , उसके लिए किस तरह की सोच और योजना होनी चाहिए। कोरोना से लड़ाई इतनी आसान नहीं है । अनलॉक -१ के सफ़र के  जब कुछ भी नहीं सुधरा तो मामूली बंदिशो के साथ अनलॉक -२ की घोषणा कर दी गई, लेकिन  अब भी कुछ भी साफ़ नहीं था। व्यापारी , मध्यम वर्ग तो परेशान थे हीं मज़दूर भी रोज़गार नहीं मिलने की वजह से वापस लौटने लगे । हालाँकि लौटने वालों की संख्या कम थी , लेकिन उनकी व्यथा सरकार की विफलता को उजागर कर रहा था। वापस शहर लौटने वाले मज़दूरों ने साफ़ कहा कि राशनकार्ड नहीं होने के कारण उन्हें मनरेगा में काम नहीं दिया और न ही रोज़गार की कोई व्यवस्था है , ऐस

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12 लॉकडाउन से अनलॉक का सफ़र जितना कष्टप्रद था , उससे ज़्यादा कष्टप्रद तो सत्ता में बैठे लोगों की सोच को लेकर था , लेकिन कोई भी सत्ता की ग़लतियों पर बोलने तैयार नहीं था।  मौत के आँकड़े लगातार बढ़ रहा था और सत्ता अपनी रईसी के जुगाड़ में लगा था । ऐसे में सत्ता किसी की मदद करेगी यह भरोसा ही नहीं था। नौकरियाँ लगातार ख़त्म हो रही थी, परिवहन जैसी जगह में काम करने वाले लोगों की हालत लगातार बदतर होने लगा था। यहाँ तक कि मीडिया हाउस में भी बड़े पैमाने पर छटनी होने लगा। हालाँकि मैंने पहले ही कह दिया था कि ऐसी सत्ता पर कभी भी भरोसा नहीं करना चाहिए, जिसे सिर्फ़ अपनी रईसी की फ़िक्र हो। और शायद ये बात इस देश का बड़ा तपका जानता है , समझता है। इसलिए वह हर संकट या विपदा के समय सरकारी मदद से पहले खड़ा नज़र आता है। छत्तीसगढ़ ही नहीं पूरे देश में ऐसे लोगों की कमी नही रही , जो इस महामारी में विपत्ति में फँसे लोगों के लिए अपना दिल खोलकर रख दिया था । जगह-जगह भोजन बाँटे जा रहे थे, ज़रूरी सामान दिए जा रहे थे । ताकि इस मुसीबत से परेशान लोग कोई आत्मघाती या ग़लत क़दम उठाने मजबूर न हो। छत्तीसगढ़ में टाटीबंध के सिख स

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11 बढ़ती आवाजाही से राज्यों की व्यवस्था चरमरा गई थी। हर राज्य में कोरोना का प्रभाव बढ़ने लगा था । ख़ासकर दिल्ली-मुम्बई में तो यह वायरस क़हर बनकर टूट रहा था। अभी तक केंद्र सरकार केवल निर्देश दे रही थी , लेकिन दिल्ली में जब हालात बेक़ाबू होने लगे तो अचानक गृहमंत्री अमित शाह सक्रिय हुए। आनन-फ़ानन में दिल्ली सरकार के साथ बैठक ली और पहली बार लगा कि केंद्र सरकार कुछ करने वाली है। बैठक का वास्तविक परिणाम तो बाद में आएगा लेकिन इस  बैठक के बाद दिल्ली भाजपा की राजनीति में रोक लगी । रेलवे ने पाँच सौ कोच में मरीज़ों के लिए बेड की व्यवस्था की तो उसके अलावा सत्संग भवन और होटलों में बेड की व्यवस्था में तेज़ी आई। साथ ही टेस्टिंग बढ़ाने और रिपोर्ट 48 घंटे में मिल जाने की घोषणा की गई। दिल्ली में यह व्यवस्था की घोषणा तो की गई लेकिन पहले ही डाक्टरों और कर्मचारियों की कमी से जूझ रहे चिकित्सा व्यवस्था में नए बिस्तरों के लिए डाक्टर और कर्मचारी कहाँ से आएँगे इसका कहीं ज़िक्र नहीं था। एक तरफ़ दिल्ली में चिकित्सा सुविधा के विस्तार की बात ही रही थी तो दूसरी तरफ़ दिल्ली निगम के अस्पतालों में कार्यरत डाक्टर और कर्

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10 कहीं अव्यवस्था, कहीं अज्ञान, कहीं असावधानी, कहीं स्वार्थ और कहीं-कहीं अत्याचार। लॉकडाउन के दौरान सरकार के ये अनेक दोष खुलकर सामने आ गए, दिखाई देने लगे। ऊपर से सरकार की तरफ़ से लगातार ग़लती और चूक भी हो रही थी। न सत्ता ईमानदारी से कुछ करना चाह रही थी और न ही लोग ही कोरोना से भय खा रहे थे। साफ़ दिख रहा था कि सत्ता अपनी रईसी में मगन है, और यदि कोरोना नहीं आता तो इसका कहाँ पता चलता कि सत्ता की रईसी की क़ीमत आम आदमी को किस तरह चुकाना पड़ रहा है। ख़बरें अब भी निराशाजनक आ रही थी। मज़दूरों की तकलीफ़ अब भी कम नहीं हो रही थी। जिन मज़दूरों के हौसले अपनी मेहनत के दम पर बुलंदी पर होते थे , वे भी असहाय हो गए थे । अव्यवस्था का ख़ामियाज़ा मज़दूर भुगत रहे थे। मज़दूरों की स्थिति का अंदाज़ा इस एक घटना से लगाया जा सकता है । बेंगलोर से विशेष विमान से 25 मज़दूर जब रायपुर पहुँचे तो उन्होंने अपनी व्यथा सुनाते हुए बताया कि किस तरह से सरकारी व्यवस्था ने उन्हें मज़बूर  और लाचार बना दिया था। विमान से आने वाले अमोदा नवागढ़ के राजेश ने बताया कि उसने भांजी की शादी के क़र्ज़ से उबरने छः माह पहले बेंगलोर गया था। नि

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9 बचा कुछ भी नहीं था ! सत्ता तो निर्लज्ज हो ही चुका था, समाजसेवियों ने भी शराब की वजह से मदद के हाथ खींचने लगे थे । ऐसे में महीने भर का अनलॉक का फ़ैसला हैरान करने वाला था। क्योंकि पूरी दुनिया के विशेषज्ञ कह रहे थे कि भारत के लिए आने वाला समय इस मामले में बेहद कठिन होने वाला है। मरीज़ों की बढ़ती संख्या से राज्यों में अस्पतालों की व्यवस्था ख़राब होने लगी। ख़ासकर देश की राजधानी दिल्ली और आर्थिक राजधानी मुंबई के अलावा अहमदाबाद गुजरात और तमिलनाडू में कोरोना बेक़ाबू होने लगा । छत्तीसगढ़ में भी मरीज़ों की संख्या में बढ़ोतरी होने लगा। राजधानी रायपुर के कई इलाक़े बंद कर दिए गए , लेकिन बाज़ार को बंद करने की हिम्मत न राज्य सरकारों के पास थी , न ही केंद्र सरकार की ही हिम्मत हो रही थी । उधर प्राकृतिक आपदा तूफ़ान , टिड्डियो का हमला के अलावा चीन , पाकिस्तान और नेपाल का खेल शुरू हो चुका था । एक तरफ़ देश कोरोना से जूझ रहा था तो दूसरी ओर इस नए संकट ने सरकार की कार्यप्रणाली पर सवाल खड़ा कर दिया था, लेकिन सत्ता को इनसे क्या मतलब था , कहना मुश्किल है। राज्यसभा चुनाव की घोषणा के साथ ही एक बार फिर विधायकों क

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8  पूरी दुनिया में अपना देश यानी भारत बिलकुल अलग तरह का है । यहाँ आम जनता की अलग दुनिया है और नेताओ और मंत्रियों या यूँ कहे सत्ता की अपनी अलग दुनिया है ।  यही वजह है कि एक तरफ़ कोरोना संकट के चलते आम आदमी का पेट, पीठ से चिपकने लगा था लेकिन इसकी परवाह सत्ता को नहीं थी । वह तो इसी चिंता में लगा रहा कि उनकी रईसी बरक़रार रहे।  आप कल्पना कर सकते हैं कि जिस देश की 75 फ़ीसदी लोग अपने रोज़ की ज़िंदगी सौ रुपए से भी कम में गुज़ारने मजबूर हैं , उसी देश में प्रधानमंत्री के निजी सुरक्षा में रोज़ एक करोड़ 62 लाख ख़र्च होते हैं और इसमें प्रधानमंत्री के दूसरे ख़र्च शामिल नहीं है। यह लिखते समय हमें शर्म आ रही है, लेकिन सत्ता ने जब इसकी जानकारी लोकसभा के पटल पर रखी तो उनमें शर्म बिलकुल ग़ायब था। और हैरानी की बात तो यह है कि निजी सुरक्षा में हो रहे यह ख़र्च हर साल दर साल बढ़ते ही जा रहा है, और जब हमने इसका पता किया तो हैरान हो गए कि मनमोहन सिंह के कार्यकाल में जितना ख़र्च होता था , यह ख़र्च मोदी सरकार के कार्यकाल में लगभग दो गुणा से भी ज़्यादा होने लग गया। हम यहाँ दो लाख रुपए किलो वाले मशरूम या विदेश यात

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7 इसमें कोई संदेह नहीं है कि सत्ता बेहद धूर्त और चालाक होती है, और वह आम जनमानस को बेवक़ूफ़ समझती है । यही वजह है कि सब कुछ खोल दिये जाने के बाद भी इसे लॉकडाउन कहना जारी रखा गया । लेकिन हक़ीक़त में यह लॉकडाउन था ही नहीं, केवल धार्मिक स्थल, शॉपिंग माल, होटल-रेस्टोरेंट और सिनेमा हाल को छोड़ कर सब कुछ खोल दिया गया । कहने को ही कुछ नियम , कुछ बंदिशे थी लेकिन इन नियमों को पालन कराने का कोई तरीक़ा सरकार के पास नहीं था। जिस तरह से कोरोना के चलते नरसंहार चल रहा था , वह वर्तमान पीढ़ी के लिए हैरान कर देने वाला था । इस सवाल का किसी के पास जवाब नहीं था कि कोरोना के बढ़ते प्रभाव के बाद भी सब कुछ कैसे और क्यों खोला जा रहा है। यह तो वही बात थी कि ख़ुद रईसी में रह लो और आम जनता को मरने के लिए छोड़ दो। और कह दो ख़ुद को बचा सकते हो तो बचा लो। ऐसी स्थिति में तो युद्ध काल में भी सैनिकों को नहीं छोड़ा जाता । और सैनिक प्रशिक्षित होते है । यहाँ जनता को क्या जानकारी थी । लोग तिल तिल कर मर रहे थे। सिर्फ़ मृत्यु ही मौत नहीं होती, तिल तिल कर अभावों में और डर डर कर जीना भी मौत के समान है, लेकिन सत्ता को तो अपनी र

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6 सबसे हैरानी की बात तो यह है कि किसी भी सरकार के पास मज़दूरों का पर्याप्त या सही सही डाटा नहीं है । सिर्फ़ अनुमान है कि फला राज्य से इतने लाख मज़दूर दूसरे प्रदेशों में कमाने गए हैं। बालश्रम क़ानून बनाए तो गए हैं लेकिन इस क़ानून का भी कोई मतलब नहीं है। सरकार के पास आज की तारीख़ में कोई विश्वसनीय रिकार्ड नहीं है कि किस राज्य में कितने बच्चे बालश्रम में झोंक दिए जाते हैं । ऐसे ही एक सुबह बस्तर की ख़ूबसूरत वादियाँ चित्कार उठी। लेकिन यह चित्कार किसी नक्सली हमले में मारे जा रहे पुलिस जवानो या पुलिस के फ़र्ज़ी मुठभेड़ में मारे जा रहे ग्रामीण लोगों से बिलकुल अलग थी । यह चित्कार दिल दहला देने वाली चित्कार से अलग मानवीय संवेदना को झकझोर देने वाली थी। यह चित्कार थी 12 साल की मासूम जमलो की। बीजापुर के आदेड गाँव की यह मासूम बच्ची जमलो मडकानी की मौत भूख और प्यास से हो गई। कोई कल्पना कर सकता है कि इक्कीसवी सदी के इस दौर में भी कोई भूख और प्यास से मर सकता है। लेकिन लॉकडाउन के चलते ऐसी मौते हो रही थी। लगातार हो रही थी। और इन मौतों के बीच सरकारें अपनी पीठ भी थपथपा रही थी और दावा भी कर रही थी कि हमने सब

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5 रोज़ की तरह लोग सुबह उठकर चाय की चुस्कियाँ के साथ अख़बार का इंतज़ार कर रहे थे , गर्मी अपने उफान पर पहुँच गया था, सूर्य का वेग सुबह से ही अपना प्रभाव दिखाने लगा था। अचानक एक ख़बर से मन एकदम ख़राब हो गया। जिसने भी यह ख़बर सुनी पलभर के लिए ही सही वह भीतर तक हिल गया। असहय ! ख़बर थी- महाराष्ट्र के औरंगाबाद में रेल पटरी पर सो रहे 16 मज़दूरों को एक मालगाड़ी ने रौंद दिया । जालाना रेलवे लाईन पर यह हादसा सुबह क़रीब साढ़े छः बजे हुआ । महाराष्ट्र की एक स्टील फ़ैक्टरी में काम करने वाले ये सभी लोग लॉकडाउन की वजह से काम बंद होने से परेशान थे । लॉकडाउन में यातायात के साधन बंद होने की वजह से वे पैदल ही अपने गृहनगर लौट रहे थे । सड़कों पर पुलिसिया अत्याचार या रोक टोक के कारण वे पटरी पर चलते हुए चालीस किलोमीटर का सफ़र तय कर लिया। इस बीच उन्हें कोई ट्रेन नहीं मिली तो वे थकने पर निश्चिन्त होकर पटरी पर ही आराम करने रुक गए , और चालीस किमी की थकान के चलते सुबह सुबह की ठंडी हवा ने उन्हें नींद की आग़ोश में ले लिया । और फिर यहाँ से गुज़रने वाली एक मालगाड़ी ने उन सोते मज़दूरों को कुचल दिया । 16 लोग मर गए। कितना

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4 कल्याण मार्ग के उस बंगले में अचानक फिर हलचल बढ़ गई । एक एक कर आधा दर्जन चमचमाती गाड़ियों के पोर्च में रुकने की गूँज से सुरक्षा गार्ड मुस्तैद हो गए। बूटों की आवाज़ तेज़ हो गई। उसी कमरे के उसी गोल टेबल के बीच बैठे एक गंजे ने फिर सर पर हाथ फेरा तो सबकी निगाह उसकी ओर चली गई , वह बोलने लगा , ऐसे कैसे चलेगा कोरोना का केस तो बढ़ता ही जा रहा है । जमात की वजह से लोग अभी सत्ता के कार्यों की तरफ़ ध्यान नहीं दे रहें है , भले ही कुछ लोग पैदल या अपने साधनो से लौट रहे हैं लेकिन राज्य सरकारों और समाजसेवियों ने सब कुछ संभाल रखा है । हम छात्रों को लाने की अनुमति नहीं दे सकते। लेकिन उत्तरप्रदेश की सरकार ने ज़ोर देकर कहा है कि उनके बहुत से अधिकारियों और पार्टी शुभचिंतकों के बच्चे राजस्थान में फँसे हैं और उन्हें लाना ज़रूरी है। उनका कहना है कि सत्ता में आने के बाद भी उनकी मदद नहीं की जा सकी तो फिर सत्ता आने का मतलब क्या है । यही बात राजवीर ने भी दोहराई । लेकिन इससे तो दूसरे प्रदेश के लोग भी हल्ला मचाएँगे। इस बार प्रत्युष ने आपत्ति की। कोई नहीं मचाने वाला? कोई मुख्यमंत्री नहीं चाहेगा कि बेवजह छात्रों को ल

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3 मौलाना साद आख़िर गया कहाँ ? उसे ज़मीन निगल गई या आसमान ? दो-दो सरकार और तमाम गुप्तचर एजेंसियों के रहते आख़िर वह मौलाना चला कहाँ गया। यह सवाल भले ही मुख्य धारा की मीडिया के लिए कोई मायने नहीं रखता हो पर सोशल मीडिया में लगातार उठाए जा रहे हैं। आख़िर यह मौलाना साद कौन है जिसे लेकर मोदी सत्ता निशाने पर है ? दरअसल दिल्ली में मौजूद दो-दो सरकार के रहते मरकज़ में विदेशियों का जमावड़ा की ख़बर कैसे नहीं लग पाई , जबकि दिल्ली में केंद्र सरकार की तमाम जाँच एजेंसी और पुलिस बल के रहते मरकज़ में जमातियो का सम्मेलन हो जाता है । पाँच हज़ार से अधिक लोग इस सम्मेलन का हिस्सा बनते हैं और सैकड़ों की संख्या में विदेशी कोरोना काल में जमा हो जाते हैं । यह बात रहस्य ही रहता यदि अचानक तेलंगाना में छः मौत के बाद वहाँ के मुख्यमंत्री राजशेखर ने हल्ला न मचाया होता। और मरने वाले दिल्ली के मरकज़ से होकर आए हैं इसका ख़ुलासा नहीं होता। मुख्यमंत्री के हल्ला मचाने के बाद जब लोगों का ग़ुस्सा फूटने लगा तो रात दो बजे मुख्य सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल की मौलाना साद से मुलाक़ात के बाद मरकज़ के लोगों की पहचान शुरू हुई , राज्यों

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2 रायसीना की पहाड़ी को उगते सूरज ने थोड़ी देर में ही अपने आग़ोश में ले लिया था। थोड़ी-थोड़ी देर में सुरक्षा गार्डो की चहलक़दमी ही इसकी शांति को भंग करती थी। हवा में गर्माहट बढ़ने लगी थी। रायसीना की पहाड़ी में स्थित एक दफ़्तर में ख़ुशी की गूँज सुनाई दे रही थी। चलो ! सरकार हमारी बन गई, तुम व्यर्थ ही चिंता कर रहे थे।अब तो शाम तक मुख्यमंत्री शपथ ग्रहण भी कर लेंगे।  जबकि समूचा देश कल से शुरू हो रहे चैत्र प्रतिपदा में, नवरात्र की तैयारी में लगा था। मंदिरो को सजाया जा रहा था। ज्योति कलश की स्थापना की तैयारी हो रही थी। शाम होते ही मंदिरो की लाईट जगमगा उठी। रंग-बिरंगे झालरो से मंदिर जगमगाने लगे। मंदिरो से देवी गीत के स्वर हवा में घुलने लगे। और लोग देवी गीत गुनगुनाने भी लगे थे । घर घर तैयारी थी। मगर सरकार के भीतर कुछ और ही चल रहा था, इसलिए शाम के बाद जैसे ही समय ने रात के लिए क़दम रखा , देश भर में सम्पूर्ण लॉकडाउन की घोषणा कर दी गई। अचानक लोग बाज़ारों की ओर टूट पड़े। राशन की ख़रीदी में लोगों की बढ़ती भीड़ को देख कोई भी हैरान हो सकता था। समूची जनता में अविश्वास के अंधेरे ने अपना असर दिखाना शुरू क

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1 शाम से ही शराब के जाम छलकने लगे थे, बसंत की ख़ुशबू हवा में तैरने लगा था । पूरे प्रेस क्लब परिसर में उत्सव का माहौल था। शराब की बोतलें लेने लोग टूट पड़े थे । धक्का-मुक्की का माहौल था। इस सबसे बचने कुछ लोग हाल में महफ़िल जमा चुके थे, गरम-गरम भजिया और कई तरह के चखना के बीच होली का उत्सव अपने शबाब पर था। हाथों में पैग लिए विजय ने कहा मज़ा आ गया, ए केटी तू क्यों नहीं पी रहा है बे ! पैग बना साले ! होली में भी तेरा नौटंकी कम नहीं होता । तभी शशि वहाँ आ गया । होली का आनंद लेते लोग उसे भी गिलास उठाने कहने लगे , तो शशि ने कहा इस बार कार्यक्रम में कोई नेता नहीं आया , कोरोना से सबकी फटी पड़ी है । प्रधानमंत्री तो चार दिन पहले ही होली नहीं मनाने का निर्णय ले लिया था ! उसके देखा-देखी मुख्यमंत्री और बाक़ी नेता भी इस साल न होली मनाएँगे और न ही होली मिलन समारोह में हिस्सा लेंगे। विजय को ग़ुस्सा आ गया। उसने सामने रखे गिलास को फेंकते हुए कहा- निकल साले ! इतना डरता है तो । जिसे अपनी जान का डर है वे तो मना नहीं रहे हैं लेकिन देश तो मनाएगा । तेरी फट रही है तो तू भी निकल। शशि चुपचाप चला गया लेकिन शराबियो के

लॉकडाउन -२

प्रस्तावना एक भीषण मरण ! गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है- आपुन आवे ताहि पर, ताहि जहाँ ले जाय। विचित्र बात! तुलसीदास जी के इस कथन का पता किसी को नहीं है। ऊँचे से ऊँचे पदों पर बैठा व्यक्ति भी इससे अनजान है, और अर्थ का पता हो तब भी उसे समझ नहीं है । और समझ भी होगा तो उसे याद नहीं रहता । क्योंकि सत्ता का चरित्र ही ऐसा है। या सत्ता में बैठने वाला व्यक्ति कभी इसे स्मरण नहीं करना चाहते , क्योंकि सत्ता में बैठे लोग आत्मवलोकन से डरते हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि सत्य उजागर हो गया तो उनकी बेवक़ूफ़ियाँ , उनकी ग़लती जनता जान लेगी। उससे अच्छा है, सत्य ढका रहे। पूरा विश्व कोविद-19 यानी कोरोना से जूझ रहा है। कीड़े-मकोड़ों की तरह मरते लोगों को बचाने का कोई ईलाज ही नहीं है, तब सत्ता के सामने कई तरह की चुनौती है। लेकिन सबसे बड़ा सत्य तो यह है कि उसके सामने सबसे बड़ी चुनौती लोगों को तकलीफ़ों से मुक्ति दिलाने की बजाय सत्ता की रईसी को बरक़रार रखने की है । और इसी रईसी को बरक़रार रखने के सच को ढाँकने का प्रपंच किया जाने लगा । सड़कों पर तड़फते मज़दूरों , सम्मान आहत होते मध्यम वर्ग को बहलाने की कोशिश में सत्त

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भूमिका इतिहास की ऐसी नाज़ुक घड़ी से हम गुज़र रहे हैं , जो हमारी नज़रों के सामने घट रही है। शायद भारतीय इतिहास के सबसे निराशाजनक परिस्थिति के हम साक्षी हैं । इस किताब को लिखने के पीछे मेरा उद्देश्य यही है कि महामारी की इस परिस्थिति में उलझे देश को तथा महामारी में पिसती मानवता को शब्दबद्ध कर सकूँ। देश भर की अलग अलग परिस्थिति में घट रही अलग अलग घटना जो मुझे विभिन्न अखबारो, पत्रिकाओं और न्यूज़ चैनलों में मिली उसे इकट्ठा करके किताब के रूप में पिरोने की इस कोशिश में मानवीय वेदना को बताने का प्रयास तो है ही सत्ता की निष्ठुरता को भी दिखाना है।पेट से पीठ की चिपकती व्यथा भी है और सत्ता की रईसी भी। किताब की पृष्ठभूमि में देश में फैले कोरोंना महामारी है । इस महामारी में पूरे विश्व में लाखों लोग मारे गए । भारत में भी यह महामारी क़हर बनकर टूटा। कितने ही परिवार तबाह हो गए। मृतकों के परिवार वालों को सहारा देने वाला कोई नहीं रहा। ऐसी महामारी किसी को भी नहीं छोड़ती है । इस किताब को लिखते समय मुझे बहुत से शुभचिंतकों का सहयोग मिला। मैं उन सभी का शुक्रगुज़ार हूँ । सत्ता की रईसी के बीच आम जनमानस को

लॉकडाउन - कवर पेज

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इतिहास की ऐसी नाज़ुक घड़ी से हम गुज़र रहे हैं , जो हमारी नज़रों के सामने घट रही है। शायद भारतीय इतिहास के सबसे निराशाजनक परिस्थिति के हम साक्षी हैं । इस किताब को लिखने के पीछे मेरा उद्देश्य यही है कि महामारी की इस परिस्थिति में उलझे देश को तथा महामारी में पिसती मानवता को शब्दबद्ध कर सकूँ। देश भर की अलग अलग परिस्थिति में घट रही अलग अलग घटना जो मुझे विभिन्न अखबारो, पत्रिकाओं और न्यूज़ चैनलों में मिली उसे इकट्ठा करके किताब के रूप में पिरोने की इस कोशिश में मानवीय वेदना को बताने का प्रयास तो है ही सत्ता की निष्ठुरता को भी दिखाना है। कौशल तिवारी